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________________ मर्यादा को उनके सही परिप्रेक्ष्य में ग्रहण किया तरह पराश्रित अनुभव करने लगता है। अपने व्रतों जाये और उनके माध्यम से सही अभिप्राय की को अतिचार आदि दोषों से बचाना भी उसके पूर्ति का लक्ष्य बनाया जाये। हाथ में नहीं रह जाता, दूसरों की कृपा पर निर्भर ब्रह्मचर्य-व्रत नामक सातवीं प्रतिभा व्रती । हो जाता है। दूसरी और श्रम का अवसर ही जीवन का मध्यवर्ती पड़ाव मानी जाती है। सागर उसके हाथ से निकल जाता है। श्रम मनुष्य के धर्म की सीमा के रूप में भी इसकी व्याख्या की जीवन को सरस बनाता है और उसमें वात्सल्य गई है। इसके बाद ही अनगार धर्म के अभ्यास । तथा विनय जैसे गुणोंकी वृद्धि करता है। का क्रम प्रारंभ होता है। सातवीं प्रतिमा तक। स्वावलंबन और श्रम के बिना 'श्रमणत्व की श्रावक को गृहत्याग करनेकी अनिवार्यता नहीं परिकल्पना भी नहीं हो सकती। होती। संकल्पी हिंसा और हिंसक आरंफ- जब तक व्यक्ति समाज का अंग बनकर जी परिग्रह की प्रक्रिया का त्याग करके वह घर में रहा है तब तक उसे यह दृष्टि रखनी चाहिए कि रह कर अपने लिये तथा अपने आश्रितों के लिये वह समाज से जो भी प्राप्त करता है, उससे कुछ आजीविका उपार्जन के साथ यथाशक्य समाज अधिक ही समाज को देता चले। अणुव्रतों की सेवा करते हुए भी आदर्श अणुव्रती का जीवन निर्दोष पालना के साथ यह समीकरण सहज व्यतीत कर सकता है। यद्यपि आज धर्म के हर सम्भव है. उसमें कोई दोष नहीं आता. अणव्रती क्षेत्र की तरह इस क्षेत्रमें भी कुछ विसंगतियों का . साधना में सफलता, सम्मान और प्रसिद्धि प्रवेश हो गयाहै। उसकी चिंता करके त्यागी व्रती पानेवाले जिन व्रतियों का ऊपर गुणगान किया महानुभावों को अपने कर्तव्य और दायित्व गया है, वह इसीलिये तो हुआ कि उन्होंने समाज समन्वय बिठाकर अपनी साधना को पवित्र और । से जितना पाया उससे अधिक, या उससे बहुत मार्ग को निर्दोष बनाये रखने का निरंतर प्रयास । अधिक वे समाज को देते रहे। ऐसी उदात्त करना चाहिए. भावना लेकर, आत्म-गौरव की अनुभूति के साथ स्वावलंबन और श्रम अणुव्रत-साधना के अणुव्रतों का निरतिचार पालन किया जा सके तो आवश्यक तत्त्व हैं। सातवी प्रतिमा तक इनका आज भी अणुव्रती श्रावक की प्रतिष्ठा एक अच्छे अच्छा अभ्यास साधक को आगे भी काम देता और सम्मानित साधक के रूप में हो सकती है। है। वैसे भी व्रती को कोई अधिकार नहीं है कि जो त्यागी ऐसी सावधानी के साथ व्रत पालन कर वह सातवीं प्रतिमा लेते ही आठवीं और नवमी रहे हैं उन्हें आत्म तुष्टि के साथ साथ व्रती होने प्रतिमा के अभ्यास की ओट में आरंभ-परिग्रह का गौरव भी प्राप्त होता है। त्याग का दिखावा करता हुआ अपना सारा भार शांति सदन, कम्पनी बाग, समाज पर डाल दे. ऐसा करने पर वह अपना सतना. मप्र. ४८५ ००१ स्वावलंबन खो बैठता है। उसका आत्म-गौरव खण्डित हो जाता है और वह अपने आपको पूरी રજતજયંતી વર્ષ : ૨૫ તીર્થ-સૌરભ १३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001295
Book TitleTirth Saurabh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2000
Total Pages202
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati, Devotion, & Articles
File Size6 MB
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