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________________ सद्गृहस्थ ९ उ. ४ : लगभग डेढ घंटा प्रभुकी भक्ति-पूजा, एक-डेढ घंटा सत्शास्त्रोंका अध्ययन और लगभग पौन घंटा तत्त्वका चिंतन; इतनी धर्मसाधना वह नित्य उत्साह और एकाग्रता करता है । सत्पात्रको दान देना और प्रसंगोपात्त सत्समागमका लाभ लेना वह कभी भी नहीं चूकता | प्र. ५ : उसका गृहव्यवहार और अर्थोपार्जन किस प्रकारका होता है ? 1 उ. ५ : परिवार में संगठनकी वृद्धि करता है । किसीकी भूल हो जाय तो मीठा उपालम्भ देकर क्षमा कर देता है । अपनी विचक्षणतासे परिवारको विनयी बनाता है । स्वच्छता, कर्तव्य, आरोग्य और महत्तामें सावधानी रखता है । व्यापार-धंधेकी लेनदेनमें यथासम्भव सत्यनिष्ठा रखता है। कहे हुए वचनका अवश्य पालन करता है । उसके घरमें संस्कारपोषक साहित्य और ललित कलाओंको प्रोत्साहन मिलता है और अतिथियोंको योग्य सत्कार प्राप्त होता है। आर्यपुरुषोंका ऐसा गृहस्थाश्रम इस लोकमें सुखशांति, सुयश और परलोकमें उत्तम गतिका कारण होता है । प्र. ६ : पूर्वाचार्योंने बुद्धिमान पुरुषोंके गृहस्थाश्रमको कैसा कहा है ? उ. ६ : निम्नलिखित गुणोंसे जो विभूषित हो वह बुद्धिमान पुरुषों का गृहस्थाश्रम है; और जहाँ उससे विपरीत प्रवर्तन हो वहाँ मोहरूपी कैदमें फँसे हुऐ कैदीके रूपमें उस गृहस्थको जानना, ऐसा आचार्योंका उपदेश है : For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001292
Book TitleAdhyatmagyan Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShrimad Rajchandra Sadhna Kendra Koba
Publication Year2005
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Philosophy
File Size2 MB
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