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सामान्यस्वरूप के विचार का सारांश
जगत के सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य विशेषात्मक होते हैं और ऐसे ही पदार्थ को प्रमाण जानता है, वस्तु सामान्य विशेषात्मक है इस बात को सिद्ध करने के लिये दो समर्थ हेतु उपस्थित किये जाते हैं एक अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय होने से और दूसरा, उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप परिणमन सहित अर्थ क्रिया होने से, अर्थात् प्रत्येक वस्तु में सामान्य समानता होने से अनुवृत्त ज्ञान तथा विशेष-विसदृशता होने से व्यावृत्त ज्ञान होता है तथा उत्पादादि परिणमन द्वारा अर्थ क्रिया होती है। अत: वस्तु सामान्य विशेषात्मक है । पदार्थ में स्थित सामान्य के तिर्यग् सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य ऐसे दो भेद हैं। बौद्ध सामान्य धर्म को नहीं मानते हैं, उनका कहना है कि जाति और व्यक्ति अर्थात् सामान्य और विशेष दोनों एक ही इंद्रिय गम्य हैं अतः इनमें अभेद है, सामान्य मात्र काल्पनिक संवृत्ति सत्य, अनुमान का विषयभूत ऐसा आरोपित धर्म है, इन बौद्धों को समझाते हुए प्राचार्य कहते हैं कि एक इन्द्रिय गम्य होने से सामान्य और विशेष में अभेद मानेंगे तो वायु और धूप में भी अभेद मानना होगा, क्योंकि वे भी एक स्पर्शनेन्द्रिय गम्य है । दूरसे प्रत्येक वस्तु का सामान्य धर्म ही झलकता है, दूर से सूखा वृक्ष दिखायी देने पर उसकी ऊंचाई मात्र झलकती है न कि पुरुष या स्थाणुरूप विशेष । दूर में सामान्य का विशद प्रतिभास है वैसे निकट में भी है । प्रत्येक गाय में जो यह भी गो है यह भी गो है इत्यादि रूप से अनुगत बोध होता है वह साधारण धर्म के बिना कैसे होगा ? यदि सामान्य धर्म के बिना ही अनुगत ज्ञान होना माने तो व्यावृत्त ज्ञान भी विशेष के बिना होता है ऐसा स्वीकार करना होगा। व्यक्तियों में एक कार्यपना देखकर सदृशता का ज्ञान होना भी सम्भव नहीं क्योंकि गो आदि व्यक्तियां समान कार्य कहां करती हैं ? वे तो बोझा ढोना, दूध देना, हल चलाना इत्यादि अनेक विभिन्न कार्यों में संलग्न हैं। इस प्रकार अनुगत ज्ञान अन्य किसी कारण से न होकर सदृश परिणाम रूप सामान्य से ही होता है यह सिद्ध हुआ। यह सामान्य अनित्य, अनेक
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