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________________ ६८० प्रमेयकमलमार्तण्डे ___ काल कारक आदि के भेदों से भिन्न प्रर्थ को कहने वाला शब्दनय है । शब्द भेद से अर्थभेद स्वीकारने वाला समभिरूढनय है इसकी दृष्टि में एक वस्तु के पर्यायवाची अनेक शब्द नहीं हो सकते । विवक्षित क्रिया परिणत वस्तु मात्र का ग्राहक एवंभूतनय है। इसकी दृष्टि में जिस समय जो क्रिया करता है वही उसकी संज्ञा है, अन्य समय में वह संज्ञा नहीं है । ये शब्दनय, समभिरूढनय और एवंभूतनय परस्पर में यदि सापेक्ष हैं तब तो सम्यक्नय कहलायेगे अन्यथा शब्दनयाभास आदि हो जायेंगे। ऋजसूत्र तक चार नय अर्थप्रधान हैं और अग्रिम तीन नय शब्दप्रधान हैं। नैगम आदि नयों में आगे आगे के नय अल्प विषय वाले होते गये हैं। इन सातों नयों का आगे आगे विषय किसप्रकार अल्प होता गया है इसके लिए एक उदाहरण है-एक व्यक्ति ने कहा "चिड़िया बोल रही है" अब नैगमनय कहेगा गांव में चिड़िया बोल रही है। संग्रहनय की अपेक्षा वृक्ष पर चिड़िया बोल रही है । व्यवहारनय की अपेक्षा तनाधार पर, ऋजसूत्र की अपेक्षा शाखा पर, शब्दनय की अपेक्षा घौसले में, समभिरूढ की अपेक्षा शरीर में और एवंभूतनय की अपेक्षा कण्ठ में चिड़िया बोल रही है । यह उदाहरण केवल अल्प अल्प विषय किसप्रकार है इसके लिये दिया है। सप्तभंगी प्रश्न के वश से एक ही वस्तु में अविरोधरूप से विधि और प्रतिषेध की कल्पना करना सप्तभंगी है । इसमें सात भंग होते हैं अतः सप्तभंगी कहते हैं। सात भंग ही क्यों होते हैं इसके लिये श्रीप्रभाचन्द्राचार्य ने बहुत ही सुन्दर कथन किया है कि प्रतिपाद्य पुरुष के सात ही प्रश्न होने से सप्त भंग है । सात ही प्रश्न क्यों है तो सात प्रकार से वस्तु तत्त्व समझने की जिज्ञासा होती है जिज्ञासा भी सात क्यों तो संशय सात प्रकार का होता है, और संशय सात प्रकार का ही क्यों तो वस्तु में स्वयं में सात ही स्वरूप हैं इसलिये ।। सप्तभंगी के नयसप्तभंगी और प्रमाणसप्तभंगी ऐसे दो भेद हैं। दोनों में यही अन्तर है कि प्रमाणसप्तभंगी में नास्तित्व धर्म की व्यवस्था के लिये अविरुद्ध अारोपित धर्म से नास्तित्व की व्यवस्था होती है और नयसप्तभंगी में नास्तित्व की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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