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________________ नयविवेचनम् तथा 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिठा' इति साधनभेदेप्यर्थाऽभेदमाद्रियन्ते "प्रहासे मन्यवाचि युष्मन्मन्यतेऽस्मदेकवच्च" [जैनेन्द्रव्या० १ । २ । १५३ ] इत्यभिधानात् । तदप्यपेशलम् ; अहं पचामि त्वं पचसि' इत्यत्राप्येकार्थत्वप्रसङ्गात् । तथा, 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रोपग्रहभेदेप्यर्थाभेदं प्रतिपद्यन्ते उपसर्गस्य धात्वर्थमात्रो द्योतकस्वात् । तदप्यचारु; 'सन्तिष्ठते प्रतिष्ठते' इत्यत्रापि स्थितिगतिक्रिययोरभेदप्रसङ्गात् । तत: कालादिभेदाद्भिन्न एवार्थः शब्दस्य । तथाहि -विवादापन्नो विभिन्नकालादिशब्दो विभिन्नार्थप्रतिपादको विभिन्न ६६५ तथा "ऐहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि यातस्ते पिता" [ आवो तुम मानते होंगे कि मैं रथ से जावूंगा किन्तु नहीं जा सकते क्योंकि उससे तो तुम्हारे पिता गये । ऐसा एहि इत्यादि संस्कृत पदों का अर्थ व्याकरणाचार्य करते हैं किंतु व्याकरण के सर्व सामान्य नियमानुसार इन पदों का अर्थ - आवो मैं मानता हूं, रथ से जावोगे किंतु नहीं जा सकोगे क्योंकि उससे तुम्हारे पिता गये । इसप्रकार होता है ] यहां साधन भेद - मध्यमपुरुष उत्तमपुरुष ग्रादि का भेद होनेपर भी अर्थ अभेद है क्योंकि हंसी मजाक में मध्यमपुरुष और उत्तमपुरुष में एकत्व मानकर प्रयोग करना इष्ट है, ऐसा वे लोग कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं, इस तरह तो अहं पचामि त्वं पचसि श्रादि में भी एकार्थपना स्वीकार करना पड़ेगा । , तथा संतिष्ठते प्रतिष्ठते इन पदों में उपसर्ग का भेद होने पर भी अर्थ का भेद मानते हैं क्योंकि उपसर्ग धातुओं के अर्थ का मात्र द्योतक है, इसप्रकार का कथन भी असत् है, संतिष्ठते प्रतिष्ठते इन शब्दों में जो स्थिति और गति क्रिया है इनमें भी अभेद का प्रसंग होगा । इसलिये निश्चित होता है कि काल, कारक आदि के भिन्न होने पर शब्द का भिन्न ही अर्थ होता है । विवाद में स्थित विभिन्न कालादि शब्द विभिन्न अर्थ का प्रतिपादक है क्योंकि वह विभिन्न कालादि शब्दत्वरूप है, जैसे कि अन्य अन्य विभिन्न शब्द भिन्न भिन्न अर्थों के प्रतिपादक हुआ करते हैं, मतलब यह है कि जैसे रावण और शंख चक्रवर्ती शब्द क्रमश: प्रतीत और आगामी काल में स्थित भिन्न भिन्न दो पदार्थों के वाचक हैं वैसे ही विश्वदृश्वा और भविता ये दो अतीत और आगामी काल में स्थित व्यक्ति के वाचक होने चाहिये, ऐसे ही कारक आदि में समझना । यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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