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________________ ६५४ प्रमेय कमलमार्तण्डे और समर्थदूषण व्यवस्थित होता है । हेतु में दिये गये दोष का निराकरण वादी न करे, तथा प्रतिवादी अपने प्रतिपक्ष को सिद्ध कर देवे तो वादी की पराजय होगी, और वादी के हेतु में प्रतिवादी दोष नहीं दे सकेगा या प्रतिवादी द्वारा दिये गये दोष का वादी निराकरण कर पश्चात् स्वपक्ष सिद्ध कर देगा तो वादी की जय और प्रतिवादी की पराजय निर्णीत होगी । स्वपक्ष को सिद्ध किये बिना जय कथमपि नहीं हो सकता । इसमें योग का मंतव्य सर्वथा भिन्न है वे छल [ वचन विधातोर्थ विकल्पोपपत्या छलम् शब्द का दूसरा अर्थ करके परके वचन का व्याघात करना छल है ] जाति [ असदुत्तरं जातिः असत् उत्तर देना ] एवं निग्रहस्थानों द्वारा जय पराजय होना स्वीकार करते हैं । छल के तीन भेद, जाति के चौबीस भेद एवं निग्रहस्थानों के बाईस भेद योग ने स्वीकार किये हैं । बौद्ध ने असाधनांगवचन और प्रदोषोद्भावन नामके दो निग्रहस्थान माने हैं। इन छल जाति आदि का प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने अकाट्य तर्क शैली से निराकरण कर दिया है। बौद्ध के उक्त दो निग्रहस्थान एवं योग के प्रतिज्ञा हानि प्रादि २४ निग्रहस्थान ग्रामीणपन का प्रदर्शन मात्र है। इनके निग्रहस्थानों का सामान्य तथा विशेष लक्षण अव्याप्ति अतिव्याप्ति दोषों से भरा है। छल द्वारा तो कोई भी जय को प्राप्त नहीं कर सकता। प्रथम तो बात यह है कि चतुरंगवाद में सभ्य एवं सभापति महान बुद्धिमान हुआ करते हैं अपक्ष पतिताः प्राज्ञा: सिद्धांतद्वयवेदिनः । अरूद्वाद निषेद्धारः प्रश्निका: प्रगृहा इव ।।१।। अर्थात् पक्षपात रहित, प्राज्ञ, वादो तथा प्रतिवादी के सिद्धांत के ज्ञाता, असत्य-अप्रशस्तवाद का निषेध करने वाले, शकट के बलोवर्द के नियंत्रक के समान उन्मार्ग के निषेधक प्राश्निक अर्थात् सभ्य पुरुष हुअा करते हैं। ऐसे महाजन छल प्रयोग होते ही उसे रोक देते हैं अतः छल द्वारा जय आदि की कल्पना सर्वथा असंभव है। इसीप्रकार मिथ्या उत्तर स्वरूप जाति द्वारा जय पराजय की व्यवस्था भी असम्भव है। मिथ्या उत्तर चौबीस ही क्या सैकड़ों हजारों हो सकते हैं अतः इनको संख्या निश्चित करना हो अज्ञानता है । अतः प्राचार्य माणिक्यनन्दी सूत्रकार का कथन ही युक्तिसंगत है कि वादी ने अपने पक्ष की सिद्धि के लिये स्वसिद्धांत अनुसार अनुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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