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जय पराजयव्यवस्था का सारांश
पञ्चम अध्याय का अंतिम सूत्र प्रमाण तदाभासौ इत्यादि में प्राचार्य श्री माणिक्यनन्दी ने जय पराजयव्यवस्था का संकेत मात्र किया है। स्वमत का प्रकाशन एवं प्रसार की दृष्टि से वाद किया जाता है। योग की मान्यता है कि वीतराग पुरुषों में सिद्धांत विषयक होने वाली चर्चा ही वाद है और परमत का निरसन एवं तत्त्व तथा स्वमत का संरक्षण करने के लिये जल्प और वितंडा होते हैं इन दो में हो जय पराजय का लक्ष्य रहता है ये विजिगीषु पुरुषों द्वारा प्रवृत्त होते हैं। अर्थात् वाद तो वीतराग कथा रूप है यह गुरु और शिष्य या समान बुद्धिधारक पुरुषों में होता है। किन्तु यह युक्त नहीं, जल्प और वितंडा द्वारा तत्त्व संरक्षण होना असंभव है, वितंडा में तो अपना निजी पक्ष ही नहीं हुआ करता केवल पर का निराकरण रहता है । तथा जाति छल
आदि द्वारा एक दूसरे का खंडन मात्र उनमें रहने से तत्त्व संरक्षण कथमपि नहीं होता। वाद द्वारा ही तत्त्व संरक्षण संभव है, इस बात को आचार्य ने सयुक्तिक सिद्ध किया है। इस तत्त्व संरक्षकवाद के चार अंग हैं वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति । सभा में सर्व प्रथम अपना पक्ष उपस्थित करने वाला वादी अनुमान द्वारा साध्य सिद्ध करता है, उस अनुमान में प्रतिवादी दोष दिखाता है, यदि सभा के सामने वादो का अनुमान बाधित होता है तो उतने मात्र से कोई पराजय नहीं होता । प्रथम तो बात यह है कि वाद करने का अधिकार स्व स्व सिद्धांत के प्रौढ़ विद्वान को ही होता है, उनका कर्तव्य है कि निर्दोष हेतु वाले अनुमान का प्रयोग करे, तथा प्रतिवादी का कर्तव्य है कि उसमें समीचीन रीत्या संभावित दोष प्रगट कर दे। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब वादी ने निर्दोष हेतु उपस्थित किया है तो प्रतिवादी उसमें दोषोद्भावन कैसे कर सकता है ? इसका उत्तर यह है कि वादी अपने सिद्धांत के अनुसार अन्यथानुपपत्तिरूप समर्थ हेतु का प्रयोग करता है, इसके पश्चात् प्रतिवादी अपने सिद्धांत का अवलंबन लेकर उक्त हेतु में दोष उठाता है, इसप्रकार विभिन्न सिद्धांत द्वारा एक ही विषय में समर्थ साधन
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