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________________ ६५० प्रमेयकमलमार्तण्डे ___] इति ; तद्वादिना दोषवति साधने प्रयुक्ते सत्यनुमतमेव, यदि वादी स्वपक्षं साधयेत्, नान्यथा। वचनाधिक्यं तु दोषः प्रागेव प्रतिविहितः । यथैव हि पञ्चावयवप्रयोगे वचनाधिक्यं निग्रहस्थानम्, तथा व्यवयवप्रयोगे न्यूनतापि स्याद्विशेषाभावात् । प्रतिज्ञादीनि हि पञ्चाप्यनु मानांगम्-"प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः" [ न्यायसू० १११।३२ ] इत्यभिधानात् । तेषां हेतु उदाहरण, उपनय और निगमन ये अनुमान के अंग या अवयव कहलाते हैं, इन पांचों में से किसी को न कहा जाय तो न्यून नामका दोष अवश्य प्राता है । इसप्रकार बौद्ध के असाधनांग वचन और अदोषोद्भावन निग्रहस्थान का निरसन हो जाता है । नैयायिक के निग्रहस्थानों का निरसन तो पहले कर चुके हैं । इसलिये जय और पराजय की व्यवस्था का कारण भी माणिक्यनन्दी प्राचार्य ने "प्रमाणतदाभासौ" इत्यादि सूत्र द्वारा बहुत ही निर्दोष पद्धति से प्रतिपादन किया है। जय पराजय का निर्णय अन्य किसी भी निमित्त से नहीं हो सकता । आचार्य महाराज अब इस जय पराजय प्रकरण का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि नैयायिक प्रादि प्रवादी छल, जाति आदि के द्वारा जय और पराजय की व्यवस्था स्वीकारते हैं उसे अाग्रहरूपी पिशाच को छोड़कर विचार पूर्ण भाव को निर्मल मन में लाकर प्रामाणिक पुरुषों को स्वयं ही निर्णय कर लेना चाहिये अर्थात् स्वपक्ष की सिद्धि होने पर जय और सिद्धि नहीं होने पर पराजय होता है, निग्रहस्थान या छल आदि से नहीं ऐसा स्व प्रज्ञा से बुद्धिमान् निश्चय करें, अब अधिक कथन नहीं करते हैं। भावार्थ-प्राचीनकाल में मत मतांतर के विद्वान् स्व स्वमत का प्रचार करने के लिये वाद करते थे, वाद के चार अंग माने हैं, वादी, प्रतिवादी, सभ्य सभापति, प्रथम पक्ष स्थापित करने वाला वादी कहलाता है, उसके पक्ष का निराकार करते हुए अपने प्रतिपक्ष को स्थापित करने वाला प्रतिवादी एवं वाद के समय प्रश्नकर्ता मध्यस्थ महान् ज्ञानी पुरुष सभ्य हैं तथा सबके नियंत्रक सभापति हैं, वाद के समय अनुमान । प्रमाण द्वारा अपना पक्ष सिद्ध किया जाता है, यदि सबके समक्ष वादी का पक्ष हेतु प्रादि निर्दोष सिद्ध होते हैं, उसके पक्ष के सिद्धि को सभ्य और सभापति स्वीकृत करते हैं तो वादी का जय माना जाता है । वादी के पक्ष उपस्थित करने पर उस में प्रतिवादी अनेक प्रकार से सत्य दोषों को प्रगट करता है । नैयायिक आदि का कहना है कि वादी या प्रतिवादी के अनुमान में दोष प्रगट करना, तथा वादी आदि के द्वारा सदोष हेतु का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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