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जय-पराजयव्यवस्था
६४६ निरवद्यौ पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहवैयर्थ्याभावात् । कस्यचित्कुतश्चित्स्वपक्षसिद्धो सुनिश्चितायां परस्य तत्सिद्ध्यभावतः सकृज्जयपराजयाप्रसंगात् ।
यच्चेदम्-'प्रदोषोद्भावनम्' इत्यस्य व्याख्यानम्-"प्रसज्यप्रतिषेधे दोषोद्भावनाऽभावमात्रमदोषोद्भावनम्, पर्युदासे तु दोषाभासानामन्यदोषाणां चोद्भावनं प्रतिवादिनो निग्रहस्थानम्"
व्यवस्था तो स्वपक्ष की सिद्धि और प्रसिद्धि के द्वारा ही निर्दोष रीति से सम्पन्न होती है, इस व्यवस्था में पक्ष और प्रतिपक्ष का ग्रहण करना भी व्यर्थ नहीं होता है। इस व्यवस्था में यह भी एक मौलिकता है कि वादी और प्रतिवादी में से किसी एक पुरुष के किसी निर्दोष हेतु आदि के निमित्त से स्वपक्ष की सिद्धि सुनिश्चित हो जाती है तब शेष परवादी पुरुष के अपने पक्ष की सिद्धि का नियम से अभाव है अतः एक साथ दोनों के जय अथवा पराजय होने का प्रसंग नहीं पाता।
यहां तक बौद्ध के "असाधनांगम्' इस पद के व्याख्यान का निरसन किया ।
"प्रदोषोद्भावनम्" इस पद का उनके यहां व्याख्यान है कि दोषोद्भावनम् "पद में न समास हे न दोषोद्भावनम् इति प्रदोषोद्भावनम्" इस नञ् का प्रसज्य प्रतिषेध [अत्यन्ताभाव] अर्थ करने पर दोषों के उद्भावन | प्रगट ] का अभावमात्र अदोषोद्भावन कहलायेगा और नञ् का पर्युदास निषेध अर्थ करने पर दोषाभासों का तथा अन्य दोषों का उद्भावन करना अदोषोद्भावन कहलायेगा, ऐसा यह अदोषोद्भावन प्रतिवादो का निग्रहस्थान है । इस व्याख्यान पर हम जैन का कहना है कि यदि वादी सदोष साधन [हेतु] का प्रयोग करता है और फिर भी प्रतिवादी प्रदोषोद्भावन रूप रहता है तो उसका निग्रहस्थान होगा किन्तु उसमें एक शर्त है यदि वादी स्वपक्ष को सिद्ध कर देगा तो उक्त प्रदोषोद्भावन प्रतिवादी का निग्रहस्थान बन जायगा, वादी स्वपक्ष को सिद्ध नहीं करेगा तो निग्रहस्थान नहीं हो सकता। बौद्ध के वचनाधिक्य दोष का निराकरण तो पहले ही उसके निरसन करते समय हो चुका है। अाप बौद्ध जिसप्रकार प्रतिज्ञा आदि अनुमान के पांच अवयवों के प्रयोग करने पर वचनाधिक्यनामा निग्रहस्थान हो जाना स्वीकारते हैं, उसोप्रकार योग प्रतिज्ञा आदि तीन अवयवों के प्रयोग करने पर न्यून नामका निग्रहस्थान हो जाना मानते हैं, उभयत्र कोई विशेषता नहीं है । यौग की मान्यता है कि प्रतिज्ञा यादि पांचों भी अनुमान के अंग हैं, प्रतिज्ञा
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