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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे तथाविधस्याप्यस्य प्रतिपत्ति विशेषोपायत्वात्तन्ने ति चेत् ; कथमने कस्य हेतोदृष्टान्तस्य वा तदुपायभूतस्य वचनं निग्रहाधिकरणम् ? निरर्थकस्य तु वचनं निरर्थकत्वादेव निग्रहस्थानं नाधिकत्वादिति । __सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तः ।" [ न्यायसू० ५।२।२३ ] प्रतिज्ञातार्थपरित्यागान्निग्रहस्थानम् । यथा नित्यानऽभ्युपेत्य शब्दादीन् पुनरनित्यान् ब्रूते । इत्यपि प्रतिवादिनः प्रतिपक्षसाधने सत्येव निग्रहस्थानं नान्यथा। "हेत्वाभासाश्च यथोक्ताः।" [ न्यायपू० ५।२।२४ ] प्रसिद्धविरुद्धानेकान्तिककालात्ययाप "यत् कृतकं तद् अनित्यं" इसप्रकार व्याप्ति दिखाने में यत् और तत् शब्द अधिक है, यहां पर समासान्त पद के प्रयोग से ही अर्थ की प्रतिपत्ति होना सम्भव है अतः वाक्य प्रयोग करना अधिक होने से निग्रहस्थान कैसे नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। नैयायिक-कृतकत्व आदि हेतु पद में क प्रत्यय अधिक होने पर या यत् तत शब्द अधिक होने पर भी वे शब्द प्रतिपत्ति विशेष के उपायभूत हैं अतः निग्रहस्थान नहीं कहलाते ? जैन-तो फिर अनेक हेतु या दृष्टांत भी प्रतिपत्ति विशेष के उपाय होने से निग्रहस्थान कैसे कहला सकते हैं ? हां यदि निरर्थक ही दो हेतु प्रादि प्रयुक्त होवे तो निरर्थक के कारण निग्रहस्थान बना न कि अधिकता के कारण । इक्कीसवां निग्रहस्थान-सिद्धांत को स्वीकार कर पुनः उसके प्रनियम से कथा [वाद] करना अपसिद्धांत निग्रहस्थान है, अर्थात् अपने स्वीकृत पागम से विरुद्ध साध्य को सिद्ध करना अपसिद्धांत कहलाता है, इसमें प्रतिज्ञात अर्थ का त्याग होने से निग्रह होता है । जैसे शब्दों को नित्य स्वीकार कर पुनः अनित्य कहने लगना । सो यह निग्रहस्थान भी प्रतिवादी के प्रतिपक्ष के सिद्ध होने पर ही उपयोगी है अन्यथा नहीं। ____ बाईसवां निग्रहस्थान हेत्वाभास का प्रयोग करना हेत्वाभास निग्रहस्थान है, असिद्ध, विरुद्ध, अनेकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट, और प्रकरणसम ये पांच हेत्वाभास हैं, इनका अनुमान में प्रवेश हो तो हेत्वाभास निग्रहस्थान बनता है। इनमें हमारा कहना है कि विरुद्ध हेत्वाभास के प्रगट होने पर प्रतिपक्ष की सिद्धि होती है अतः इस हेत्वा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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