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________________ जय-पराजयव्यवस्था ६३७ तदधिकं निग्रहस्थानम् ; इत्यपि वार्तम् ; तथाविधाद्वाक्यात्पक्षप्रसिद्धो पराजयायोगात् । कथं चैवं प्रमाणसंप्लवोभ्युपगम्यते ? अभ्युपगमे वाधिकत्वान्निग्रहाय जायेत । 'प्रतिपत्तिदाढ्य-संवादसिद्धिप्रयोजनसद्भावान्न निग्रहः' इत्यन्यत्रापि समानम् । हेतुना दृष्टान्तेन वैकेन प्रसाधितेप्यर्थे द्वितीयस्य हेतोदृष्टान्तस्य वा नानर्थक्यम्, तत्प्रयोजनसद्भावात् । न चैवमनवस्था; कस्यचित्क्वचिनिराकांक्षतोपपत्ते : प्रमाणान्तरवत् । कथं चास्य कृतकत्वादी स्वाथिककप्रत्यय वचनम्, 'यत्कृतकं तदनित्यम्' इति व्याप्तौ यत्तद्वचनम्, वृत्तिपदप्रयोगादेव चार्थप्रतिपत्तौ वाक्यप्रयोगः अधिकत्वान्निग्रहस्थानं न स्यात् ? अधिक निग्रहस्थान है । किन्तु यह भी व्यर्थ का निग्रहस्थान है। इसप्रकार के दो हेतु आदि वाले अनुमान वाक्य से यदि पक्ष सिद्ध होता है तो पराजय कथमपि नहीं होगा । दूसरी बात यह है कि इसतरह अधिक हेतु आदि का प्रयोग करना निषिद्ध मानोगे तो प्रमाण-संप्लव किस तरह स्वीकृत होगा ? [एक प्रमाण के विषय में अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति होना प्रमाण संप्लव कहलाता है, एकस्मिन् प्रमाण विषये प्रमाणान्तर वर्तनं प्रमाणसंप्लवः ] यदि स्वीकृत है तो वह अधिक होने से निग्रह के लिये कारण बन जायगा। नैयायिक-प्रमाण संप्लव मानने में निग्रह का प्रसंग नहीं होता, क्योंकि इससे प्रतिपत्ति में दृढ़ता अाती है एवं संवाद [समर्थन] सिद्ध होता है ? जैन-यह बात अधिक हेतु आदि में भी समान है। देखिये-एक हेतु या दृष्टांत द्वारा साध्यसिद्ध होने पर भी दूसरा हेतु या दृष्टांत देना व्यर्थ नहीं जाता, क्योंकि द्वितीय हेतु आदि के प्रयोग से तो प्रतिपत्ति की दृढ़ता आती है। ऐसा प्रयोग करने से अनवस्था हो जाने की आशंका भी नहीं करना, किसी को किसी वाक्य में निराकांक्षा हो ही जाती है जैसे प्रमाणान्तर प्रयोग में हो जाती है । अर्थात् एक हो अनुमान वाक्य में दूसरे हेतु आदि आयेंगे तो आगे आगे अन्यान्य भी आते रहने से अनवस्था बन बैठेगी ऐसी शंका नहीं करना, क्योंकि एक दो हेतु प्रयोग के अनन्तर प्रतिपत्ति की कांक्षा समाप्त होती है। जैसे एक प्रमाण के विषय में अन्य प्रमाण उपस्थित होवे तो आगे दो तीन प्रमाण के अनन्तर अपेक्षा समाप्त होती है अतः प्रमाण संप्लव में अनवस्था नहीं आती है । अधिक हेतु प्रयोग को निग्रहस्थान बतलाने वाले नैयायिक से हम जैन पूछते हैं कि, दो हेतु आदि के प्रयोग से निग्रह होता है तो कृतकत्व आदि हेतु पद में स्वार्थिक क प्रत्यय अधिक है, एवं जो कृतक होता है वह अनित्य होता है- .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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