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प्रमेयकमलमार्तण्डे तद्व्युत्क्रमात् ; इत्यप्यसारम् ; एवंविधप्रतीत्यभावात् । यस्माद्धि शब्दादुच्चरिताद्यत्रार्थे प्रतीतिः स एव तस्य वाचको नान्यः, अन्यथा 'शब्दात्तत्क्रमाच्चापशब्दे तद्व्युत्क्रमे च स्मरणं ततोऽर्थप्रतीतिः' इत्यपि वक्तु शक्येत। एवं शब्दाद्यन्वाख्यानवैयर्थ्य चेत् ; न; एवं वादिनोऽनिष्टमात्रापादनात्, अपशब्देपि चान्वाख्यानस्योपलम्भात् । 'संस्कृताच्छब्दात्सत्याद्धर्मोन्यस्मादऽधर्मः' इति नियमे चान्यधर्माधर्मोपाया
बोध हुया माना जाता है उसीप्रकार प्रतिज्ञा आदि अनुमान के अवयवों को अक्रम से सुनकर पहले उनके क्रम का स्मरण होता है और स्मत क्रम से वाक्यार्थ का बोध होता है न कि अक्रमिक अवयवों से ?
_जैन-यह कथन असार है, इसतरह की प्रतीति नहीं होती है, उच्चारण किये गये जिस शब्द से जिस अर्थ में प्रतीति होती है वही शब्द उस अर्थ का वाचक हुया करता है, अन्य नहीं । अन्यथा हम यों भी कह सकते हैं कि शब्द से या उसके क्रम से अपशब्द या व्युत्क्रम का स्मरण होता है फिर उस स्मृत अपशब्दादि से अर्थ बोध होता है।
नैयायिक-इसतरह शब्द से अपशब्द का स्मरण और उससे अर्थ बोध माने तो, शब्दों का अन्वाख्यान करना व्यर्थ सिद्ध होगा, अर्थात् विपरीत क्रम वाले शब्द होने पर या अपशब्द होने पर विद्वान्जन उनका क्रमवार व्याख्यान करते हैं श्लोकों का अन्वय करके अर्थ बोध कराते हैं, अपशब्द का सुशब्द द्वारा कथन करते हैं, सो सब व्यर्थ रहेगा ? क्योंकि क्रम के बिना या अपशब्द से [अपभ्रश शब्द से] भी अर्थबोध होना मान लिया।
जैन-ऐसा नहीं है यहां केवल वादी के अनिष्ट का कथन करने की बात है। दूसरी बात यह भी है कि अपशब्द का भी अन्वाख्यान देखा जाता है। यदि आप कहें कि संस्कृत शब्द से धर्म होता है अन्य शब्द से नहीं अतः अपशब्द का अपभ्रंश का अन्वाख्यान होता ही नहीं, सो यह संस्कृत सत्यभूत शब्द से धर्म और अन्य शब्द से अधर्म होने का नियम स्वीकार करें तो इज्या [पूजा] अध्ययन आदि एवं व्यसन आदि अन्य अन्य धर्म अधर्म के उपायों का अनुष्ठान व्यर्थ ठहरेगा। अर्थात् केवल संस्कृत शब्दोच्चारण से धर्म [पुण्य] होता है तो पूजा, तपस्यादि परिश्रम व्यर्थ है। तथा धर्म
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