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जय-पराजयव्यवस्था
६२६ स्यापि तदस्तु प्रकृतिप्रत्ययादिवर्णवत् । न खलु प्रकृतिः केवला पदं प्रत्ययो वा, नाप्यनयोरनर्थकत्वम् । अभिव्यक्तार्थाभावादनर्थकत्वे पदस्यापि तस्यात् तथैव हि प्रकृत्यर्थः प्रत्येयनाभिव्यज्यते प्रत्ययार्थश्च प्रकृत्या तयो केवलयोरप्रयोगात्, तथा 'देवदत्तस्तिष्ठति' इत्यादिप्रयोगे सुबन्तपदार्थस्य तिङन्तपदेन तिङन्तपदार्थस्य च सुबन्तपदेनाभिव्यक्त : केवल स्याप्रयोग : । पदान्तरापेक्षस्य पदस्य सार्थकत्वं प्रकृत्यपेक्षस्य प्रत्ययस्य तदपेक्षस्य च प्रकृत्यादिवर्णस्य समानमिति ।
"अवयव विपर्यासवचन मप्राप्तकालम् ।" [ न्यायसू० ५।२।११ ] अवयवानां प्रतिज्ञादीनां विपर्यासेनाभिधानमप्राप्तकालं नाम निग्रहस्थानम् । इत्यप्यपेश लम् ; प्रेक्षावतां प्रतिपत्तृणामवयवक्रमनियम विनाप्यर्थप्रतिपत्त्युपलम्भाद्देवदत्तादिवाक्यवत् । ननु यथापशब्दाच्छ्र ताच्छब्दस्मरणं ततोऽर्थप्रत्यय इति शब्दादेवार्थप्रत्ययः परम्परया तथा प्रतिज्ञाद्यवयवव्युत्क्रमात् तत्क्रमस्मरणं ततो वाक्यार्थप्रत्ययो न
का अर्थ प्रकृति द्वारा अभिव्यक्त होता है इसलिये केवल प्रकृति या केवल प्रत्यय का प्रयोग नहीं करते, उसतरह देवदत्तस्तिष्ठति-“देवदत्त ठहरता है" इत्यादि प्रयोग में सुवंतपद का अर्थ [ सि विभक्ति वाला देवदत्तः पद ] तिङन्त पद के अर्थ द्वारा [ ति विभक्ति वाला तिष्ठति पद ] और तिङन्त पद का अर्थ सुबंत पद के अर्थ द्वारा अभिव्यक्त होता है, इसलिये केवल पद का प्रयोग नहीं करते । जो पद अन्य पद की अपेक्षा से युक्त है वह अर्थवान् है ऐसे कहे तो जो प्रत्यय प्रकृति की अपेक्षा से युक्त है अथवा जो प्रकृति प्रत्यय की अपेक्षा से युक्त है ऐसा प्रकृति आदि का वर्ण भी अर्थवान् क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। इसतरह अपार्थक नामा निग्रहस्थान की व्यर्थता है।
___ दसवां निग्रहस्थान-अनुमान के अवयवों को विपरीतरूप से कहना अप्राप्तकाल नामका निग्रह स्थान है। प्रतिज्ञा हेतु आदि अनुमान के अवयव हैं उनका विपर्यास करके कथन करने से अप्राप्त काल निग्रहस्थान होता है । सो यह निग्रहस्थान भी अयुक्त है, क्योंकि बुद्धिमान् प्रतिवादी आदि को अवयव क्रम का नियम नहीं होने पर अर्थ की प्रतिपत्ति होती है, जैसे "देवदत्त गामभ्याज शुक्लां दण्डेन' हे देवदत्त ! गाय को ताड़ो सफेद को दण्ड द्वारा" इस विपरीत पद प्रयुक्त वाक्य का सहज ही अर्थ कर लिया जाता है कि हे देवदत्त सफेद गाय को दण्डे से ताड़ो।
नैयायिक-जिसप्रकार असत्य शब्द के सुनने से पहले सत्य शब्द का स्मरण होता है फिर उस स्मृत शब्द से अर्थ बोध होता है अतः परम्परा से शब्द से ही अर्थ
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