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जय-पराजयव्यवस्था
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रविज्ञातत्वोपलम्भात् । श्रथाभ्यामविज्ञातमप्येतद्वादी व्याचष्ट ; गूढोपन्यासमध्यात्मनः स एव व्याचष्टाम् । श्रव्याख्याने तु जयाभाव एवास्य न पुनर्निग्रहः परस्य पक्षसिद्ध ेरभावात् । द्रुतोच्चारेपि श्रनयोः कथञ्चित् ज्ञानं सम्भवत्येव सिद्धान्तद्वयवेदित्वात् । साध्यानुपयोगिनि तु वादिनः प्रलापमात्रे तयोरज्ञानं नाविज्ञातार्थं वर्णक्रम निर्देशवत् । ततो नेदमभि (वि) ज्ञातार्थं निरर्थकाद्भिद्यते इति ।
"पौर्वापर्यायोगादप्रति सम्बद्धार्थमपार्थकम् ।" [ न्यायसू० ५।२।१० ] यथा दश दाडिमानि पूपा: कुण्डमजाऽजिनं पललपिण्डः ।
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इत्यपि निरर्थकान्न भिद्यते यथैव हि जबगडदत्वादौ वर्णानां नैरर्थक्यं तथात्र पदानामिति । यदि पुनः पदनैरर्थक्यं वर्णनं रर्थक वादन्यत्वान्निग्रहस्थानान्तरमभ्युपगम्यते ; तर्हि वाक्यनैरर्थक्यस्याप्या
जैन - तो वही बात यहां होवे, अर्थात् वादी ने गूढ वाक्य कहा है और सभ्यादि उसको जान नहीं रहे तो वादी स्वयं उसका अर्थ कह देगा । यदि वादी श्रपने गूढ वाक्य का अर्थ नहीं कहता है तो वादी का जय नहीं होगा, किन्तु इसको निग्रह हुआ नहीं कहते, क्योंकि अभी प्रतिवादी के पक्ष की सिद्धि नहीं हुई है। शीघ्र उच्चारण के कारण सभ्यादि पुरुष वादी के वाक्यार्थ को नहीं जानते ऐसा कहना भी जमता नहीं क्योंकि सभ्य और प्रतिवादी को पक्ष प्रतिपक्ष दोनों के सिद्धांतों का ज्ञान रहने से उक्त वाक्य का किंचित् अर्थ तो जानेंगे ही। वादी यदि साध्य के अनुपयोगी वाक्य का प्रलाप करता है तो यह उनका [ वादी को साध्य साधन का अज्ञान है अथवा यह प्रज्ञान सभ्य और प्रतिवादी का है ] प्रज्ञान है इसे श्रविज्ञातार्थ नाम नहीं है, जैसे वर्णक्रम निर्देश में साध्य के अनुपयोगी वाक्य की बात थी । अतः यह अविज्ञातार्थ निग्रहस्थान, निरर्थक निग्रहस्थान से पृथक् नहीं है ।
नौवां निग्रहस्थान - पूर्वापर संबंध से रहित वाक्य प्रस्तुत करना अपार्थक निग्रहस्थान है, जैसे दश दाडिम है, छह पुत्रा, कुंडा, बकरे का चर्म, मांसपिंड है ऐसे वाक्य कहना ।
यह भी निरर्थक निग्रहस्थान से पृथक् नहीं है, जिसतरह जबगडदशत्व आदि हेतु वाक्य में वर्णों की निरर्थकता है उसतरह दश दाडिम आदि वाक्य में पदों की निरर्थकता है । यदि पद निरर्थकता को वर्ण निरर्थकता से भिन्न मानकर इसको निग्रहांतर माना जाता है तो वाक्य निरर्थकता भी इन दोनों से पृथक् होने से श्रन्य
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