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प्रमेयकमलमार्तण्डे
मात्रेण भेदे वा खात्कृताकम्पहस्तास्फालनकक्षापिहिकादेरपि साध्यसिद्धयनुपयोगिनो निग्रहस्थानान्तरत्वानुषङ्ग इति।
“परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातम विज्ञातार्थम् ।" [ न्यायसू० ५।२६ ] अत्रेदमुच्यते-वादिना त्रिरभिहितमपि वाक्यं परिषत्प्रतिवादिभ्यां मन्दमतित्वादविज्ञातम् गूढाभिधानतो था, द्र तोच्चाराद्वा? प्रथमपक्षे सत्साधनवादिनोप्येतन्निग्रहस्थानं स्यात्, तत्राप्यनयोर्मन्दमतित्वेनाविज्ञातत्व सम्भवात् । द्वितीयपक्षे तु पत्रवाक्यप्रयोगेपि तत्प्रसङ्गो गूढाभिधानतया परिषत्प्रतिवादिनोमहाप्राज्ञयो
हैं। यदि किंचित् विशेषता होने मात्र से उनमें भेद माना जाता है तो खकारना, कांपना, हाथों को ठोकना, कक्षापिहिका [ कक्ष-कांख को ढकना | इत्यादिरूप से की गयी वादी के चेष्टायें भी साध्य सिद्धि में अनुपयोगी होने से निग्रहस्थान मानने होंगे । इसतरह बहुत सारे निरर्थक निग्रहस्थान बनेंगे । इसलिये निरर्थक निग्रहस्थान से निग्रह करना-पराजय करना असम्भव है ।
पाठवां निग्रहस्थान-वादी ने तीन बार अनुमान वाक्य कहा तो भी सभ्य पुरुष और प्रतिवादी के द्वारा वह जाना नहीं जाय तो अविज्ञातार्थ नामा निग्रहस्थान है । इस विषय में जैन प्रश्न करते हैं-वादी द्वारा तीन बार वाक्य के कहने पर भी सभ्य और प्रतिवादी द्वारा वह वाक्य अज्ञात रहता है उसमें कारण क्या है सभ्य और प्रतिवादी की बुद्धिमन्द है, अथवा उक्त वाक्य गूढ है, या वादी ने उसे अतिशीघ्रता से बोला है ? बुद्धिमन्द होने से सभ्यादि ने उक्त वाक्यार्थ को नहीं जाना ऐसा कहो तो, सच्चे हेतु का प्रयोग करने वाले वादी के ऊपर भी यह निग्रहस्थान लागू हो जायगा ? क्योंकि उक्त हेतु प्रयोग को भो सभ्य और प्रतिवादी अपने मंदबुद्धि के कारण जान नहीं सकते । गूढता के कारण उक्त वाक्य को नहीं जाना ऐसी दूसरी बात मानो तो पत्र वाक्य प्रयोग में उक्त निग्रहस्थान का प्रसंग आयेगा क्योंकि पत्र द्वारा किये गये वाद में जो वादी द्वारा पत्र में लिखित अनुमान वाक्य रहता है वह अत्यन्त गूढ रहता है, उसको सभ्य और प्रतिवादी महाप्राज्ञ होने पर भी कदाचित् जान नहीं पाते ।
नैयायिक-पत्र वाक्य की ऐसी बात है कि कदाचित् सभ्य और प्रतिवादी द्वारा उक्त वाक्य जाना नहीं जाता तो वादी स्वयं उसका व्याख्यान अर्थात् खुलासा कर दिया करता है ?
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