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________________ ६२४ प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यप्यसुन्दरम् ; एवं सत्यविशेषोक्ते दृष्टान्तोपनयनिगमने प्रतिषिद्ध विशेषमिच्छतो दृष्टांताद्यन्तरमपि निग्रहस्थानान्तरमनुषज्येत तत्राक्षेपसमाधानानां समानत्वादिति । "प्रकृतादर्थादप्रतिसम्बन्धार्थमर्थान्तरम् ।” [ न्यायसू० ५।२।७ ] यथोक्तलक्षणे पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहे हेतुतः साध्यसिद्धौ प्रकृतायां प्रकृतं हेतु प्रमाणसामर्थ्येनाहमसमर्थः समर्थयितुमित्यवस्यन्नपि कथामपरित्यजन्नर्थान्तरमुपन्यस्यति-नित्य : शब्दोऽस्पर्शवत्त्वादिति हेतुः । हेतुश्च हिनोतेर्धातोस्तुप्रत्यये कृदन्तं पदम्, [ पदं ] च नामाख्यातोपसर्गनिपाता इति प्रस्तुत्य नामादीनि व्याचष्टे । विशेषण बढ़ाता है कि एक प्रकृतिरूप कारण से अनुस्यूत होने पर वस्तु भेदों का परिमाण है । सो इसतरह अविशेषरूप कहे हुए हेतु के निषिद्ध होने पर विशेषहेतु को कहना हेत्वन्तरनामा निग्रहस्थान है । यह निग्रहस्थान का वर्णन भी असत् है, इसतरह का निग्रहस्थान माने तो अविशेषरूप दृष्टांत, अविशेषरूप उपनय, या निगमन के प्रयुक्त होने पर प्रतिवादी उनका प्रतिषेध करता है और वादी पुनः विशेषता चाहता हुया दृष्टान्तान्तर आदि को कहता है ऐसे ऐसे अनेकानेक निग्रहस्थान बन बैठेंगे, यदि उसमें पाप नैयायिक कुछ आक्षेप उठायेंगे तो वे आक्षेप आपके हेत्वान्तर में घटित होंगे, तथा जो समाधान प्राप देंगे वे ही इन दृष्टांतान्तर आदि में घटित होवंगे। छठा निग्रहस्थान-प्रकृत जो अर्थ है उससे असम्बद्ध अर्थ को कहते बैठना अर्थान्तर नामा निग्रहस्थान है, जैसे वादी ने पहले अनुमान प्रयोग किया कि शब्द अनित्य है इंद्रियग्राह्य होने से, इस पर प्रतिवादी सामान्य इन्द्रियग्राह्य होने पर भी नित्य है, इत्यादि दोष उपस्थित करता है तब वादी साध्यसिद्धि में प्रकृतहेतु को प्रमाण की सामर्थ्य द्वारा समर्थन करने के लिये मैं समर्थ नहीं हूं ऐसा जानता हुअा भी वाद को नहीं छोड़ता और अन्य अर्थ को उपस्थित करता है कि शब्द नित्य है, अस्पर्शवान् होने से, तथा हेतु शब्द को निष्पत्ति करने लगता है-'हेतुः' यह कृदंत पद है इसमें हिनोति धातु और तु प्रत्यय है । अथवा नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात आदि का प्रकरण लेकर उनको कहने लग जाता है, वह सबका सब अर्थान्तर निग्रह स्थान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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