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________________ ६२३ पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः ।" [ न्यायसू० ५।२।५] यथा 'श्रनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद् घटवत्' इत्युक्त पूर्ववत्सामान्येनानैकान्तिकत्वे हेतोरुद्भावित प्रतिज्ञासंन्यासं करोति क एवमाह 'नित्य: ( अनित्यः ) शब्द ' ? इत्यपि प्रतिज्ञाहानितो न भिद्य ेत हेतोरनैकान्तिकत्वोपलम्भेनात्रापि प्रतिज्ञायाः परित्यागाविशेषादिति । जय-पराजयव्यवस्था "विशेषोक्त हेतौ प्रतिषिद्ध विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ।" [ न्यायसू० ५।२६ ] निदर्शनम् - 'एकप्रकृतीदं व्यक्त विकाराणां परिमाणान्मृत्पूर्वक घट शरावोदञ्चनादिवत्' इत्यस्य व्यभिचारेण प्रत्यवस्थानम्-नानाप्रकृतीनामेकप्रकृतीनां दृष्टं परिमाणमित्यस्य हेतोरहेतुत्वं निश्चित्य 'एकप्रकृतिसमन्वये विकाराणां परिमाणात्' इत्याह । तदिदमविशेषोक्त हेतौ प्रतिषिद्ध विशेषं ब्रुवतो हेत्वन्तरं नाम निग्रहस्थानम् । निग्रहस्थान पूर्वोक्त निग्रहस्थान से पृथक् नहीं है क्योंकि हेतु द्वारा प्रतिज्ञा का प्रतिज्ञापना खंडित होना प्रकारान्तर से प्रतिज्ञाहानि हो है उसीको प्रतिज्ञाविरोध नाम से कहा, अथवा यह विरुद्ध हेत्वाभास नामा हेतुदोष है न कि प्रतिज्ञादोष है । चौथा निग्रहस्थान - पक्ष का प्रतिषेध हो जाने पर प्रतिज्ञा के अर्थ को हटा देना प्रतिज्ञा संन्यास निग्रहस्थान है । जैसे शब्द अनित्य है इन्द्रियग्राह्य होने से घट के समान, ऐसे वादी के कथन करने पर प्रतिवादी पूर्ववत् सामान्य के साथ हेतु का अनैकान्तिक दोष प्रगट कर देता है तब वादी प्रतिज्ञा का संन्यास प्रर्थात् त्याग करता है कि शब्द अनित्य है ऐसा किसने कहा ? इत्यादि । सो यह निग्रहस्थान भी प्रतिज्ञा हानि से भिन्न नहीं, इसमें भी हेतु की प्रनैकान्तिकरूप से उपलब्धि होने के कारण प्रतिज्ञा का त्याग समानरूप से है । विशेषरूप कहे हुए हेतु का खंडन होने पर विशेषहेतु का कथन करना हेत्वन्तर नामा पांचवाँ निग्रहस्थान है, यह व्यक्तरूप महदादि कार्य एक प्रकृतिरूप है, क्योंकि विकार अर्थात् वस्तु भेदों का परिमाण है, जैसे मिट्टीपूर्वक होने वाले घट, शराब, उदंचन [ पानी सींचने का पात्र ] यादि कार्य एक मिट्टीरूप हैं, ऐसा किसी सांख्यमती वादी ने कहा, इसमें प्रतिवादी व्यभिचार देता है- नाना प्रकृतिरूप और एक प्रकृतिरूप दोनों में ही परिमाण देखा जाता है अतः वस्तु भेदों का परिमाण होने से ऐसा हेतु हेतु है वास्तविक हेतु नहीं है, इस दोष के देने पर पुनः वादी हेतु में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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