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जय-पराजयव्यवस्था
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वादिनो जात्युपन्यासेपि समानं जातीनां दूषणाभासत्वात् । तस्मान्न स्वोपन्यस्तजात्यपरिज्ञानोद्भावनरूपेणोत्तराऽप्रतिपत्त्युद्भावनेन तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावयन्तमितरं निगृह्णाति ।
द्वितीयविकल्पै स्वोपन्यस्ता जाति: कथं परोद्भावितजात्यन्तर रूपा न भवतीति वादिनेतरः प्रतिपाद्यते ? न तावत्स्वोपन्यस्तजातिस्वरूपानुवादेन, यथा नेय मुत्कर्षसमा जातिरपकर्षसमत्वादस्या इति ; प्रथमपक्षोदितदोषप्रसङ्गात् । नाप्यनुपलम्भात् ; अनुपलम्भमात्रस्याप्रमाणत्वात् । अनुपलम्भविशेषस्यापि स्वोपन्यस्तजातिस्वरूपोपलम्भलक्षणत्वात्, तत्र चोक्तदोषप्रसङ्गात् । तन्न जातिवादी जात्यन्तरमुद्भावयन्तं प्रतिवादिनं तदुद्भावितजात्यन्तरनिराकरणलक्षणेनोत्तराप्रतिपत्त्युद्भावनेन विजयते ।
नाप्युत्तराप्रतिपत्तिमात्रोद्भावनरूपेण; 'त्वया न ज्ञातमुत्तरम्' इत्युत्तराप्रतिपत्तिमात्रोद्भावने
जन-यह बात तो जाति वादी के द्वारा जाति के उपस्थित करने पर भी समान रूप से होगी, क्योंकि जातियां तो दूषणाभास स्वरूप ही हैं। इसलिये स्व उपन्यस्त जाति का अपरिज्ञान प्रगट करना रूप उत्तर अप्रतिपत्ति के उद्भावन द्वारा मौन से या अन्य कुछ कहते हुए प्रतिवादी का निग्रह नहीं करता है।
द्वितीय विकल्प-वादी द्वारा उद्भावित की गयी जाति विशेष का निराकरण करने से प्रतिवादी विजयी होता है ऐसा माने तो इसमें प्रश्न उठता है कि अपने द्वारा उपस्थित की गयो जाति पर द्वारा उद्भावित जाति विशेषरूप नहीं होती है ऐसा वादी द्वारा प्रतिवादी को किसप्रकार समझाया जायेगा ? अपने उपन्यस्त जाति का स्वरूप बतलाकर तो समझा नहीं सकता, क्योंकि यह उत्कर्षसमाजाति नहीं है यह तो अपकर्षसमाजातिरूप है, इसतरह यह प्रथमपक्ष में कहा हुआ उत्तर अप्रतिपत्तिरूप दोष ही हुया । अनुपलंभ से भी समझा सकता है क्योंकि अनुपलभसामान्य अप्रमाणस्वरूप है और अनुपलं भविशेष भी अपनी उपन्यस्ताजाति स्वरूप उपलभ वाला होने से उसमें वही उत्तर अप्रतिपत्ति दोष का प्रसंग होगा, अतः प्रथम बार जाति का प्रयोग करनेवाला जातिवादी अन्य जातिविशेष के प्रयोक्ता प्रतिवादी को उसके जाति विशेष का निराकरण करनारूप उत्तर अप्रतिपत्ति से जीत नहीं सकता यह निश्चित हुप्रा ।
तीसरा विकल्प-उत्तर अप्रतिपत्ति मात्र का उद्भावन करके भी विजयी नहीं हो सकता, क्योंकि प्रतिवादी यदि कहेगा कि तुमने उत्तर को नहीं जाना, तो इस
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