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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्वयमुद्भावनीयं दोषं परेणोद्भावयितु तूष्णींभावोऽन्यस्य चोद्भावनं नाज्ञानात् । स्वयमुद्भाविते हि दोषे जात्यादिवादी तत्परिहारार्थ किञ्चिदन्यद्ब्रू यादिति न वादावसानं स्यात् । परस्याऽज्ञानमाहात्म्यख्यापनार्थं वा; पश्यतैवंविधमस्याज्ञानमाहात्म्यं वेन स्वयमेव स्वदोषकलापमस्मत्साधनस्य सम्यक्त्वं चोद्भावयतीति । एवं साध्येन पूर्वपक्षवादिना प्रत्यवस्थिते किमत्र जातिवादी ब्र यात्-'जातिर्मया प्रयुक्तापि न ज्ञातानेनेति वचनादुत्तरकालमनेनावसितो दोषकलापो न प्राक्, अतोऽज्ञानेनैव प्रतिवादिना तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावितम्' इति । अत्रापि शपथः शरणम् । ननु यदि नाम जानतैव पूर्वपक्षवादिना तूष्णीभूतमन्यद्वोद्भावितं तथापि तेन सदुत्तरानभिधानात्कथं नास्य पराजयः स्यात् ? तदेतज्जाति जैन-यह बात नहीं है, मौन रहना या अन्य कुछ कहना तो वादी इसलिये करता है कि वाद का अब अधिक विस्तार न हो । क्योंकि स्ववचन का नियंत्रण करने वाले वादीगण होते हैं वे विचलित नहीं होते, अतः स्वयं प्रकट करने योग्य दोष को पर के द्वारा प्रकट कराने के लिये मौन रहते हैं या अन्य बात को कहते हैं, अज्ञान के कारण मौन नहीं रहते । दूसरी बात यह है कि यदि वादी स्वयं उक्त दोष को प्रकट कर लेवे तो भी जाति प्रयोक्ता प्रतिवादी उसका परिहार करने के लिये पुनः कुछ अन्य बोलेगा, और इसतरह वाद का समापन न हो सकेगा। वादी इसलिये भी मौन रहता है कि जिससे सभ्य जनों को प्रतिवादी के अज्ञान माहात्म्य का पता चले, वे वादी अपने मौन द्वारा सभ्यों को यह जतलाया करते हैं कि देखो इस प्रतिवादी की अज्ञानता, जो अपने मुख से अपने दोष को और मेरे हेतु के वास्तविकपने को प्रगट कर रहा है । इसप्रकार साध्य को प्रथम बार कहने वाले वादी द्वारा प्रतिवादी का प्रज्ञान प्रकट करने पर उक्त प्रतिवादी क्या बोलेगा "मैंने जाति प्रयोग किया तो भी इसने नहीं जाना" ऐसा जब मैंने स्वयं कहा तब इस वादी ने दोषकलाप जाना, पहले तो कुछ समझा ही नहीं, ऐसा तो प्रतिवादी कहेगा नहीं, और जब कुछ कहेगा नहीं तो यही समझा जायगा कि प्रज्ञान के कारण प्रतिवादी मौन है या अन्य कुछ का कुछ 'कह रहा है । इस में भी शपथ शरण है अर्थात् इस तरीके से कुछ निर्णय नहीं होगा। ___ योग-यदि पूर्व पक्षवादी दोष को जानते हुए मौन रहे या अन्य बात कहे, तो इसने सत् उत्तर तो दिया ही नहीं अतः इसका पराजय कैसे नहीं होगा ? १. टिप्पण-यहां संस्कृत में पाठ अपूर्ण या प्रशुद्ध प्रतीत होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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