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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे सम्यक्साधने प्रयुक्त प्राप्त्या यत्प्रत्यवस्थानं सा प्राप्तिसमा जातिः । श्रप्राप्त्या तु प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसमेति । तद्यथा - हेतुः साध्यं प्राप्य, श्रप्राप्य वा साधयेत् ? 'प्राप्य चेत्; हेतुसाध्ययोः प्राप्तयो - र्युगपत्सम्भवात्कथमेकस्य हेतुतान्यस्य साध्यता युज्येत्' इति प्रत्यवस्थानं प्राप्तिसमा जातिः । श्रथ 'अप्राप्य हेतु । साध्यं साधयेत्; तर्हि सर्व साध्यमसौ साधयेत् । न चाप्राप्तः प्रदीपः पदार्थानां प्रकाशको दृष्ट:' इति प्रत्यवस्थानमप्राप्तिसमेति । ५६४ ताविमौ दूषणाभासो प्राप्तस्यापि धूमादेरग्न्यादिसाधकत्वोपलम्भात्, कृत्तिकोदयादेस्त्वप्राप्तस्य शकटोदयादौ गमकत्वप्रतीतेरिति । दृष्टान्तस्यापि साध्यविशिष्टतया प्रतिपत्तौ साधनं वक्तव्यमिति प्रसङ्ग ेन प्रत्यवस्थानं प्रसङ्गसमा जातिः । यथात्रैव साधने प्रयुक्त परः प्रत्यवतिष्ठते - 'क्रिपा हेतुगुरणयोगात्क्रियावाल्लोष्ट :' इति हेतुर्नोक्तः । न च हेतुमन्तरेण साध्य सिद्धिः । प्राप्ति और प्रप्राप्ति समाजाति-वादी द्वारा सत्य साधन प्रयुक्त करने पर प्राप्ति द्वारा जो दोष दिया जाता है वह प्राप्तिसमा जाति है, तथा अप्राप्ति द्वारा जो दोष उपस्थित किया जाय वह प्रप्राप्तिसमा नामकी जाति है । इन्होको बताते हैंप्रतिवादी वादी से प्रश्न करता है कि आपका हेतु साध्य को प्राप्त कर सिद्ध करता है या प्राप्त कर सिद्ध करता है ? यदि प्राप्त कर साध्य को सिद्ध करता है तो हेतु और साध्य एक साथ प्राप्तरूप संभव होने से एक को हेतुपना और एक को साध्यपना किस प्रकार युक्तिसंगत हो सकता है । इसतरह प्रतिवादी द्वारा उलाहना देना प्राप्तिसमा जाति है । तथा यदि श्राप वादी को अपना हेतु साध्य को बिना प्राप्त हुए सिद्ध करता है ऐसा मानना इष्ट है तो यह हेतु सभी साध्य को सिद्ध करने वाला बन जायगा । ऐसा देखा नहीं गया है कि अप्राप्त दीपक पदार्थों का प्रकाशन करता हो । इसतरह के प्रतिवादी द्वारा निरसन करने को प्रप्राप्तिसमा जाति दोष माना है । किन्तु ये प्राप्तिसमा और अप्राप्तिसमा दोनों हो सही दूषण नहीं दूषणाभास मात्र है । हेतु तो दोनों प्रकार से [प्राप्त औद प्राप्त ] देखे जाते हैं, जैसे धूम आदि हेतु प्राप्त होकर भी अग्नि आदि साध्य को सिद्ध करते हैं, एवं कृतिका का उदयरूप हेतु बिना प्राप्त हुए शकट उदयरूप साध्य को सिद्ध करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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