________________
जय-पराजयव्यवस्था
५७५
प्रवृत्तिनं च साधनाभांसो दूषणाभासो वा तद्धेतुः। अतो न तत्प्रयोगो युक्त इति । तदप्यसाम्प्रतम् ; जल्पवितण्डयोरपि तथोद्भावननियमप्रसङ्गात् । तयोस्तत्वाध्यवसायसंरक्षणाय स्वयमभ्युपगमात् । तस्य च छलजातिनिग्रहस्थानः कत्तु मशक्यत्वात् । परस्य तूष्णीभावार्थ जल्पवितण्डयोश्छलाधुद्भावनमिति चेत् ; न; तथा परस्य तूष्णीभावाभावादऽसदुत्तराणामानन्त्यात् ।
[न च] तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थत्वरहितत्वं च वादेऽसिद्धम् ; तस्यैव तत्संरक्षणार्थत्वोपपत्तेः। तथाहि-वाद एव तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थः, प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भत्वे सिद्धान्ताविरुद्धस्वे पञ्चा
ऐसा नियम है, जब बाद में वादी प्रतिवादी प्रवृत्त होते हैं तब उनका परस्पर में निर्णय रहता है कि अपन दोनों की जो वचनालाप की प्रवृत्ति हो रही है वह तत्व ज्ञानके लिये हो रही है, न कि एक दूसरे के साधनाभास या दूषणाभास को बतलाने [या हार जीत कराने ] के लिये हो रही है, इत्यादि। इतने विवेचन से निश्चित हो जाता है कि वाद काल में निग्रहस्थानों का प्रयोग निग्रह बुद्धि से करना युक्त नहीं ।
जैन-यह कथन गलत है, यदि वाद में निग्रहस्थान प्रादि का प्रयोग निग्रह बुद्धि से न करके निवारण बुद्धि से किया जाता है ऐसा मानते हैं तो जल्प और वितंडा में भी इन निग्रहस्थानादि का निवारण बुद्धि से प्रयोग होता है ऐसा मानना चाहिए । पाप स्वयं जल्प और वितंडा को तत्वाध्यवसाय के संरक्षण के लिये मानते हैं, कहने का अभिप्राय यही है कि तत्वज्ञान के लिये वाद किया जाता है ऐसा प्राप योग ने अभी कहा था सो यही तत्वज्ञान के लिये जल्प और वितंडा भी होते हैं, तत्वज्ञान और तत्वाध्यवसाय संरक्षण इनमें कोई विशेष अन्तर नहीं है तथा तत्वाध्यवसाय का जो संरक्षण होता है वह छल, जाति और निग्रहस्थानों द्वारा करना अशक्य भी है।
योग-तत्वाध्यवसाय का संरक्षण तो छलादि द्वारा नहीं हो पाता किन्तु जल्प और वितण्डा में उनका उद्भावन इसलिये होता है कि परवादी चुप हो जावे ।
- जैन-ऐसा करने पर भी परवादी चुप नहीं रह सकता, क्योंकि असत् उत्तर तो अनंत हो सकते हैं । असत्य प्रश्नोत्तरों की क्या गणना ? यौग ने जो कहा था कि वाद तत्वाध्यवसाय का संरक्षण नहीं करता इत्यादि, सो बात प्रसिद्ध है, उलटे वाद
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org