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________________ ५७४ प्रमेयकमलमार्तण्डे विरुद्धः' इत्यनेनापसिद्धान्तः, 'पञ्चावयवोपपन्नः' इत्यत्र पञ्चग्रहणात् न्यूनाधिके, अवयवोपपन्नग्रहणा. द्धत्वाभासपञ्चकं चेत्यष्टनिग्रहस्थानानां वादे नियमप्रतिपादनात् । ननु वादे सतामप्येषां निग्रहबुद्धयोद्भावनाभावान्न विजिगीषास्ति । तदुक्तम्-तर्कशब्देन भूतपूर्वगतिन्यायेन वीतरागकथात्वज्ञापनादुद्भावननियमोपलभ्यते" [ ] तेन सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्न इति चोत्तरपदयोः समस्तनिग्रहस्थानाद्युपलक्षणार्थत्वाद्वादेऽप्रमाणबुद्धया परेण छलजाति निग्रहस्थानानि प्रयुक्तानि न निग्रहबुद्धयोद्भाव्यन्ते किन्तु निवारणबुद्धया। तत्त्वज्ञानायावयोः हैं तो क्रमश: न्यून और अधिक ऐसे दो निग्रह स्थानों का भागी बनता है एवं पांच हेत्वाभासों में से जो हेत्वाभास युक्त वाद का प्रयोग होगा वह वह निग्रहस्थान आवेगा इस तरह पांच हेत्वाभासों के निमित्त से पांच निग्रहस्थान होते हैं ऐसा योग के यहां बताया गया है अत: जल्प और वितंडा के समान वाद भी निग्रहस्थान युक्त होने से विजिगीषुओं के बीच में होता है ऐसा सिद्ध होता है। योग-यद्यपि उपर्युक्त निग्रहस्थान वाद में भी होते हैं किन्तु उनको परवादी का निग्रह हो जाय इस बुद्धि से प्रगट नहीं किया जाता अतः इस वाद में विजिगीषा [जीतने की इच्छा] नहीं होती। कहा भी है वाद का लक्षण करते समय तर्क शब्द पाया है वह भूतपूर्व गति न्याय से वीतराग कथा का ज्ञापक है अतः वाद में निग्रहस्थान किस प्रकार से प्रगट किये जाते हैं उसका नियम मालूम पड़ता है, बात यह है कि “यहां पर यही अर्थ लगाना होगा अन्य नहीं' इत्यादि रूप से विचार करने को तर्क कहते हैं जब वादी प्रतिवादी व्याख्यान कर रहे हों तब उनका जो विचार चलता है उसमें वीतरागत्व रहता है ऐसे ही वाद काल में भी वीतरागत्व रहता है वाद काल की वीतरागता तर्क शब्द से ही मालूम पड़ती है, मतलब यह है कि व्याख्यान-उपदेश के समय और वाद के समय वादी प्रतिवादी वीतरागभाव से तत्व का प्रतिपादन करते हैं, हार जीत की भावना से नहीं ऐसा नियम है। प्रमाणतर्क साधनोपालंभ सहित वाद होता है इस पद से तथा सिद्धांत अविरुद्ध, पंचावयवोपपन्न इन उत्तर पदों से सारे ही निग्रहस्थान संगृहीत होते हैं इन निग्रहस्थानों का प्रयोग परका निग्रह करने को बुद्धि से नहीं होता किंतु निवारण बुद्धि से होता है, तथा उपलक्षण से जाति, छल आदि का प्रयोग भी निग्रह बुद्धि से न होकर निवारण बुद्धि से होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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