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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु प्रसिद्धः प्रत्यक्षानुमानागमलोकस्ववचनैश्च बाधित: पक्षाभास: प्रतिपादित : तद्दोषेणैव चास्य दुष्टत्वात् पृथगकिञ्चित्कराभिधानमनर्थकमित्याशङ्कय लक्षण एवेत्यादिना प्रतिविधत्ते - लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ॥ ३९ ॥ लक्षणे लक्षणव्युत्पादन शास्त्रे एवासावकिञ्चित्करत्वरू क्षणो दोषो विनेय व्युत्पत्त्यर्थं व्युत्पाद्यते, न तु व्युत्पन्नानां प्रयोगकाले । कुत एत दित्याह-व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् । दिया हुअा यह द्रव्यत्व हेतु कुछ नहीं कर सकता अर्थात् अग्नि को ठंडा सिद्ध नहीं करता, क्योंकि अग्नि तो प्रत्यक्ष से उष्ण सिद्ध हो रही । शंका-प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम, लोक और स्ववचन इनसे बाधित जो पक्ष हो वह सब पक्षाभास है ऐसा पहले ही बता चके हैं, उस पक्ष के दोष के कारण ही यह अकिंचित्कर हेतु हेत्वाभास बना है, अतः इस हेत्वाभास को पृथकरूप से कहना व्यर्थ है ? समाधान- इसी बात को मनमें रखकर सूत्र को कहते हैं लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ।।३।। अर्थ-लक्षण को बतलाने वाले हेतु के लक्षण शास्त्र में ही इस अकिंचित्कर हेत्वाभास को गिनाया है, जो व्यक्ति अनुमान के प्रयोग करने में कुशल है व्युत्पन्नमति है वह तो पक्ष के दोष के कारण ही इस हेतु को दुष्ट हुआ मान लेता है। अभिप्राय यह है कि-हेतु के लक्षण बतलाने वाले शास्त्र में इस अकिचित्कर लक्षण वाला दोष बता दिया है, इसका कारण यह है कि शिष्यों को पहले से ही व्युत्पन्न-अनुमान प्रयोग में प्रवीण करना है अतः उनको समझाया है कि इसतरह के हेतुका प्रयोग नहीं करना, इसतरह का पक्ष नहीं बनाना, किन्तु जो व्युत्पन्नमति बन चुके हैं, वाद में उपस्थित हुए हैं उनके लिये यह हेत्वाभास का लक्षण नहीं कहा, इसका भी कारण यह है कि व्युत्पन्न पुरुष यदि ऐसा अनुमान प्रयोग करेंगे तो उन्हें वहीं रोका जायगा और कहा जायगा कि आपका यह पक्ष ठीक नहीं है, इस पक्ष के दोष से-पक्षाभास के प्रयोग से ही हेतु दूषित हुआ इत्यादि, सो कोई वाद कुशल पुरुष भी यदि किसी आकुलता आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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