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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
सपक्षविपक्षव्यापकः पक्षैकदेश वृत्तिर्यथा - पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशान्य नित्यान्यगन्धवत्त्वात् । गन्धवत्त्वं हि पृथिवीतोऽन्यत्र पक्षैकदेशे वर्तते न तु पृथिव्याम्, सपक्षे चानित्ये गुणे कर्मरिण च, विपक्षे चात्मादौ नित्ये सर्वत्र वर्तत इति ।
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श्रथेदानीमकिञ्चित्करस्वरूपं सिद्ध इत्यादिना व्याचष्ट -
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सिद्ध प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ।। ३५ ।।
सिद्धे निर्णीते प्रमाणान्तरात्साध्ये प्रत्यक्षादिबाधिते च हेतुर्न किञ्चित्करोतीत्य किञ्चित्करोऽनर्थकः ।
व्याख्यान घटित करना चाहिये, इतनी विशेषता है कि प्रद्रव्यरूप जो गुणादिक हैं वे यहां सपक्ष कहलायेंगे । इसका खुलासा करते हैं “दिशा काल और मन ये अद्रव्य हैं” यह तो पक्ष है इसमें अमूर्त्तत्व हेतु दिशा काल रूप पक्ष के एकदेश में तो है और एक देश जो मन है उसमें नहीं है । विपक्ष यहां द्रव्य है सो किसी द्रव्यरूप विपक्ष में तो मूर्त्तत्व है और किसी में नहीं, इसतरह पक्ष और विपक्ष के एकदेश में प्रमूर्त्तत्व हेतु रहा । इस हेतु का सपक्ष गुणादि है उसमें सर्वत्र व्यापक है ।
जो हेतु सपक्ष और विपक्ष में व्यापक हो और पक्ष के एकदेश में रहे वह आठवां अनैकान्तिक हेत्वाभास है, जैसे- पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पदार्थ अनित्य हैं क्योंकि ये श्रगंधवान हैं । यह ग्रगंधवानत्व हेतु पृथिवी को छोड़कर अन्य जल आदि पदार्थों में तो रहता है किन्तु पृथिवी में नहीं रहता । सपक्ष जो श्रनित्य गुण और कर्म है उनमें व्यापक है, और आत्मा आदि नित्यरूप विपक्ष में भी सर्वत्र व्याप्त है । इसतरह नैयायिकादि के यहां हेत्वाभासों का वर्णन है, प्रसिद्ध के आठ भेद विरुद्ध के आठ भेद और प्रनैकान्तिक आठ भेद ये अपने अपने प्रसिद्ध आदि में ही लीन हैं क्योंकि इनमें कुछ भी लक्षण भेद नहीं हैं, अतः इसतरह भेद करना गलत है ।
अब यहां पर श्री माणिक्यनंदी आचार्य प्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास का स्वरूप बतलाते हैं
सिद्ध े प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः ||३५||
अर्थ – जो प्रमाण प्रसिद्ध साध्य हो अथवा प्रत्यक्षादि प्रमाण से बाधित साध्य हो ऐसे साध्य के लिये प्रयुक्त हुप्रा हेतु प्रकिञ्चित्कर कहलाता है, जो साध्य पहले ही
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