SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तदाभासस्वरूपविचारः ५३६ वाग्मनसे नित्यत्वात् । नित्यत्वं हि पक्षकदेशे मनसि वर्तते न वाचि, विपक्षे चास्मदादिबाह्यकरणाप्रत्यक्षे गगनादौ नित्यत्वं वर्तते न सुखादौ । सपक्षे च घटादावस्याऽवृत्त : सपक्षावृत्तित्वम् । सामान्यस्य च सपक्षत्वं सामान्या (न्य) विशेषवत्त्वविशेषणाद्वयवच्छिन्नम् । योगिबाह्यकरणप्रत्यक्षस्य चाकाशादेरस्मदाद्यऽग्रहणादसपक्षत्वम् । पक्षकदेशवृत्तिः सपक्षावृत्तिविपक्षव्यापको यथा-नित्ये वाग्मनसे उत्पत्तिधर्मकत्वात् । उत्पत्तिधर्मकत्वं हि पक्षकदेशे वाचि वर्तते न मनसि, सपक्षे चाकाशादौ नित्ये न वर्तते, विपक्षे च घटादौ सर्वत्र वर्तते इति । तथाऽसति सपक्षे चत्वारो विरुद्धा: पक्षविपक्षव्यापकोऽविद्यमानसपक्षो यथा-पाकाश विशेषगुरण : शब्दः प्रमेयत्वात् । प्रमेयत्वं हि पक्षे शब्दे वर्तते । विपक्षे चानाकाशविशेषगुणे घटादौ, न तु रहता है [परवादी ने मन को नित्य माना है] और वचन रूप पक्ष में नहीं रहता। तथा जो बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्ष नहीं है ऐसे आकाशादि विपक्ष में यह नित्यत्व हेतु रहता है किंतु सुखादि विपक्ष में नहीं रहता, इस तरह यह पक्ष के एक देश में तथा विपक्ष के एक देश में रहने वाला कहा जाता है, घट आदि सपक्षभूत पदार्थ में यह हेतु नहीं रहने से सपक्ष प्रवृत्ति वाला है। यहां सामान्य को सपक्षपना नहीं है क्योंकि “सामान्य विशेषवान हैं" ऐसे विशेषण द्वारा सामान्यनामा पदार्थ का व्यवच्छेद किया है । योगिजन के बाह्य न्द्रिय से प्रत्यक्ष होने वाले आकाशादिक यहां सपक्ष नहीं हो सकते, क्योंकि वे हमारे द्वारा अग्राह्य हैं। जो हेतु पक्ष के एक देश में रहता हो, सपक्ष अवृत्ति वाला हो, और विपक्ष में पूर्ण व्यापक हो वह चौथा विरुद्ध हेत्वाभास है जैसे-मन और वचन नित्य हैं, क्योंकि उत्पत्ति धर्म वाले हैं, यह उत्पत्ति धर्मत्व हेतु पक्ष के एकदेशभूत वचन में रहता है और एकदेशभूत मन में नहीं रहता। नित्य सपक्षभूत आकाशादि में नहीं रहता । तथा विपक्षभूत घट पटादि में सर्वत्र ही रहता है । अब जिसका सपक्ष विद्यमान ही नहीं होता ऐसे विरुद्ध हेत्वाभास के चार भेद बतलाते हैं-जो हेतु पक्ष विपक्ष में व्यापक है और अविद्यमान है सपक्ष जिसका ऐसा है उस विरुद्ध हेत्वाभास का उदाहरण-जैसे शब्द आकाश का विशेष गुण है, क्योंकि वह प्रमेय है । यह प्रमेयत्व हेतु पक्षभूत शब्द में रहता है, जो आकाश का गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy