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________________ ५३८ प्रमेयकमलमार्तण्डे उत्पत्तिधर्मकत्वं हि पक्षीकृते शब्दे प्रवर्तते, नित्यविपरीते चानित्ये घटादौ विपक्षे, नाकाशादी सत्यपि सपक्षे इति । विपक्षकदेशवृत्तिः पक्षव्यापकः सपक्षावृत्तिश्च यथा-नित्यः शब्दः सामान्यवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्वात् । बाह्य न्द्रिय ग्रहणयोग्यतामात्रं हि बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्वमत्र विवक्षितम् , तेनास्य पक्षव्यापकत्वम् । विपक्षकदेशव्यापकत्वं चानित्ये घटादौ भावात्सुखादी चाभावात् सिद्धम् । सपक्षावृत्तित्वं चाकाशादौ नित्येऽवृत्त । सामान्ये वृत्तिस्तु 'सामान्य वत्त्वे सति' इति विशेषणाद्वयवच्छिन्ना। पक्षविपक्षकदेशवृत्तिः सपक्षावृत्तिश्च यथा-सामान्य विशेषवती अस्मदादिबाह्य करणप्रत्यक्षे हेत्वाभासों के क्रमशः दृष्टांत देते हैं-जो हेतु पक्ष और विपक्ष में व्यापक हो और सपक्ष में न हो वह प्रथम विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे किसी ने अनुमान कहा कि शब्द [पक्ष] नित्य है [साध्य] क्योंकि यह उत्पत्ति धर्म वाला है [हेतु] यहां उत्पत्ति धर्मकत्व हेतु पक्षभूत शब्द में रहता है, तथा विपक्षभूत जो नित्य से विपरीत ऐसे अनित्य घटादि में रहता है, किन्तु आकाशादि सपक्ष के होते हुए भी उस में नहीं रहता। जो हेतु विपक्ष के एक देश में रहता है, पक्ष में व्यापक है सपक्ष में नहीं है वह दूसरा विरुद्ध हेत्वाभास है जैसे-शब्द नित्य है, क्योंकि सामान्यवान होकर हमारे बाह्य न्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष होता है । यहां बाह्य न्द्रिय द्वारा ग्रहण करने योग्य होना इतना ही बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्व का अर्थ विवक्षित है, ऐसी बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षता पक्षभूत शब्द में रहती है, यह बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्व हेतु विपक्ष के किसी देश में रहता है और किसी देश में नहीं, अर्थात् घटादि अनित्य विपक्षभूत वस्तु में बाह्य न्द्रिय से प्रत्यक्ष होना रूप धर्म पाया जाता है और सुख प्रादि अनित्यभूत विपक्ष में वह बाह्यन्द्रिय प्रत्यक्षत्व नहीं रहता अतः यह हेतु विपक्षक देशवृत्ति वाला कहलाता है, आकाशादि नित्यभूत सपक्ष में बाह्य न्द्रिय प्रत्यक्षत्व नहीं रहने से सपक्ष असत्व कहा जाता है । सामान्यवत्वे सति इस विशेषण से सामान्य नामा पदार्थ में इस हेतु का रहना निषिद्ध होता है । जो हेतु पक्ष और विपक्ष के मात्र एक देश में रहे तथा सपक्ष में न रहे वह तीसरा विरुद्ध हेत्वाभास है, जैसे-वचन और मन सामान्य विशेष वाले हैं एवं हमारे बाह्यन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि नित्य हैं, यहां नित्यत्व हेतु पक्ष का एक देश जो मन है उस में तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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