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सामान्यस्वरूपविचारः "नो चेभ्रान्तिनिमित्तेन संयोज्येत गुणान्तरम् । शुक्तौ वा रजताकारो रूपसाधर्म्यदर्शनात् ।।'
[ प्रमाणवा० १।४५ ] इत्यस्य, "अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् । तस्मात्प्रमेयो (या)ऽधिगते : प्रमाणं मेयरूपता ।।"
[प्रमाणवा० ३।३०५ ] इत्यस्य च विरोधानुषङ्गः।
स्वलक्षण रूप वस्तु में भ्रम के कारण यदि क्षणिक गुण से अन्य जो अक्षणिकत्व या नित्यत्व है उसका आरोप या संयोग पुरुष द्वारा नहीं किया जाता तो “सर्व क्षणिकं, सत्वात्" इत्यादि अनुमान प्रमाण प्रयुक्त नहीं होते । सीप में समान धर्म जो शुक्ल रूप है उसके देखने से रजताकार प्रतिभास होने लगता है वह भी भ्रम के कारण ही होता है ।।१।। पदार्थ के सदृश आकार धारण करने वाली बुद्धि पदार्थ के साथ सम्बन्ध घटित करती है उसको छोड़कर अन्य कोई पदार्थ के साथ सम्बन्ध घटित करने वाला नहीं है, अतः प्रमेयाकार होने से प्रमाण की प्रमेय की साकारता सिद्ध होती है, अर्थात ज्ञान पदार्थ के सदृश आकार को धारता है इस कारण से हो उसके प्रतिनियत विषय की व्यवस्था होती है ॥२।। इत्यादि, इन उभय श्लोकों में पदार्थों में समान धर्म होना स्वीकार किया गया है, अर्थात् सीप और रजत में रूप सादृश्य है, ज्ञान में पदार्थ सदृश आकार है ऐसा कहा गया है अतः यहां पर यदि बौद्ध सदृश परिणाम स्वरूप सामान्य को नहीं मानते हैं तो इन श्लोकार्थों से विरोध पाता है। यहां तक बौद्ध के अतद व्यावृत्ति रूप सामान्य का निरसन किया है, अब आगे यौग आदि के नित्य सर्वगत सामान्य का निरसन करते हैं-यह प्रतीति से सिद्ध जो सामान्य है उसको अनित्य (कथंचित) तथा असर्वगत- अव्यापक स्वभाव वाला स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि नित्य सर्वगत स्वभाव वाला मानने से उसमें अर्थ क्रिया नहीं हो सकती है, शबली आदि गो व्यक्तियां अनित्य और असर्वगत होने से उनमें निष्ठ जो गोत्व सामान्य है वह अनित्य असर्वगत होना युक्ति युक्त हो है, यह गोत्व वाह तथा दोहन अादि अर्थ क्रिया में उपयुक्त नहीं देखा गया है, वाहादि क्रिया में तो गोत्व निष्ठ व्यक्तियां ही समर्थ हुआ करती हैं।
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