SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 574
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तदाभासस्वरूपविचार: ५३१ न च व्यधिकरणस्यापि गमकत्वे अविद्यमानस नाकत्वलक्षणमसिद्धत्वं विरुध्यते ; न हि पक्षेऽविद्यमानसत्ताकोऽसिद्धोऽभिप्रेतो गुरूणाम् । किं तर्हि ? अविद्यमाना साध्येनासाध्येनोभयेन वाऽविनाभाविनी सत्ता यस्यासावसिद्ध इति । ___ भागासिद्धस्याप्यविनाभावसद्भावाद्गमकत्वमेव । न खलु प्रयत्नानन्तरीयकत्वमनित्यत्वमन्तरेण क्वापि दृश्यते । यावति च तत्प्रवर्तते तावत: शब्दस्यानित्यत्वं ततः प्रसिद्धयति, अन्यस्य शंका–व्यधिकरणत्व हेतु को साध्य का गमक माना जाय तो जिसकी सत्ता अविद्यमान है उसे अविद्यमान सत्ता नामका प्रसिद्ध हेत्वाभास कहते हैं, इसप्रकार प्रसिद्ध हेत्वाभास का लक्षण विरुद्ध होगा ? समाधान-ऐसी बात नहीं है, पक्ष में जिसकी सत्ता अविद्यमान हो वह असिद्ध हेत्वाभास है ऐसा प्रसिद्ध हेत्वाभास का अर्थ करना प्राचार्य को इष्ट नहीं है, अर्थात् अविद्यमान सत्ताकः परिणामी शब्द इत्यादि रूप जो श्री माणिक्यनन्दी गुरुदेव ने सूत्र रचना की है उसका अर्थ यह नहीं है कि जो हेतु पक्ष में मौजूद नहीं है वह असिद्ध हेत्वाभास है, किन्तु उसका अर्थ तो यह है कि साध्य के साथ जिसका अविनाभाव न हो वह प्रसिद्ध हेत्वाभास है तथा दृष्टान्त और साध्य में जिसकी मौजदगी नहीं हो वह असिद्ध हेत्वाभास है । भागासिद्ध नामका जो हेत्वाभास कहा वह भी गलत है, क्योंकि पक्ष के एक भाग में हेतु के प्रसिद्ध होने पर भी साध्य का अविनाभावी होकर गमक हो सकता है, भागासिद्ध हेतु का उदाहरण दिया था कि "अनित्यः शब्दः प्रयत्नानंतरीयकत्वात्" शब्द अनित्य है, क्योंकि वह प्रयत्न के अनन्तर पैदा होता है सो अनित्यत्व के बिना कोई भी वस्तु प्रयत्न से पैदा होती देखी नहीं जाती, अर्थात् प्रयत्नानंतरीयकत्वरूप हेतू अनित्यरूप साध्य का सदा अविनाभावी है, जो शब्द प्रयत्न से बनता है उसमें तो अनित्यपना प्रयत्न अनन्तरत्व हेतु से सिद्ध किया जाता है, और जो शब्द प्रयत्न बिना होता है ऐसे मेघादि शब्द की अनित्यता को कृतकत्वादि हेतु से सिद्ध किया जाता है अथवा प्रयत्नानन्तरीयकत्व हेतु के प्रयोग से ही यह मालूम पड़ता है कि इस अनुमान में उसी शब्द को पक्ष बनाया है कि जो प्रयत्न के अनन्तर हुआ हो, इसतरह के पक्ष को बनाने से तो हेतु की उस पक्ष में सर्वत्र प्रवृत्ति होगी ही फिर उसे भागासिद्ध कैसे कह सकते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy