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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे सिद्धत्वं च परप्रक्रियाप्रदर्शनमात्रं न वस्तुतो हेतुदोषः; व्यधिकरणस्यापि 'उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयात्, उपरि वृष्टो देवोऽधः पूरदर्शनात्' इत्यादेर्गमकत्वप्रतीतेः । अविनाभावनिबन्धनो हि गम्यगमकभावः, न तु व्यधिकरणाव्यधिकरणनिबन्धन : 'स श्यामस्तत्पुत्रत्वात्, धवलः प्रासादः काकस्य कात्'ि इत्यादिवत् । ___ व्यधिकरणसिद्धत्व और भागासिद्धत्व ये हेतु तो कोई वास्तविक हेत्वाभास नहीं है, ये तो नैयायिकादि परवादी की अपनी एक प्रक्रिया दिखाना मात्र है व्यधिकरणासिद्धत्व का लक्षण यह किया कि पक्ष और हेतुका भिन्न भिन्न अधिकरण होना व्यधिकरणासिद्धत्व है सो यह बात गलत है, ऐसा हेतु हो सकता है कि उसका अधिकरण भिन्न हो और साध्य-पक्ष का अधिकरण भिन्न है जैसे एक मुहूर्त के बाद रोहिणी नक्षत्र का उदय होगा, क्योंकि कृतिका नक्षत्र का उदय हो रहा है, इस अनुमान में रोहिणी का उदय होगा रूप साध्य और कृतिका का उदय हो चुका है यह हेतु इन दोनों का अधिकरण भिन्न भिन्न है फिर भी कृतिकोदय हेतु स्वसाध्य का गमक है, [ सिद्ध करने वाला है ] तथा ऊपर के भाग में बरसात अवश्य हुई है, क्योंकि यहां नीचले भाग में नदी में बाढ़ आयो है, यहां भी साध्य एवं हेतु का विभिन्न अधिकरण है तो भी इनमें गम्य गमक भाव बराबर पाया जाता है, कहने का अभिप्राय यही है कि साध्य साधन में गम्य गमक भाव जो होता है वह उन दोनों के अविनाभावी संबंध के कारण होता है न कि व्यधिकरण अव्यधिकरण के कारण होता है, अर्थात् जहां व्यधिकरण हो वहां हेतु साध्य को सिद्ध न करे और जहां अव्यधिकरण हो वहां वह हेतु साध्य को सिद्ध कर देवे ऐसी बात नहीं है, साध्य की सिद्धि करने वाला तो वह हेत है जो साध्य के साथ अविनाभाव रखता हो, साध्य के साथ अविनाभाव होने के बाद तो चाहे वह व्यधिकरणरूप हो चाहे अव्यधिकरणरूप हो। यदि व्यधिकरण अव्यधिकरण के निमित्त से गम्य गमक मानेंगे तो "सः श्यामस्तत् पुत्रत्वात्' उसका गर्भस्थ पुत्र काला होगा, क्योंकि उसका पुत्र है इत्यादि हेतु भी स्वसाध्य के गमकसिद्धि कारक बन जायेंगे ? क्योंकि उनमें व्यधिकरणासिद्धत्व नहीं है तथा यह महल सफेद है, क्योंकि काक में कालापना है, यह हेतु व्यधिकरण होने मात्र से गमक नहीं है ऐसा मानना होगा ? किन्तु ऐसी बात नहीं है, ये हेतु तो अविनाभाव संबंध के अभाव होने से ही सदोष हैं और स्वसाध्य के गमक नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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