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________________ प्रमेयक मलमार्त्तण्डे शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यङ्गत्वाच्छङ्खशुक्तिवदिति ॥ १६ ॥ लोके हि प्राण्यङ्गत्वाविशेषेपि किञ्चिदपवित्रं किञ्चित्पवित्रं च वस्तुस्वभावात्प्रसिद्धम् । यथा गोपिण्डोत्पन्नत्वाविशेषेपि वस्तुस्वभावतः किञ्चिद् दुग्धादि शुद्धं न गोमांसम् । यथा वा मणित्वाविशेषेपि कश्चिद्विषापहारादिप्रयोजन विधायी महामूल्योऽन्यस्तु तद्विपरीतो वस्तुस्वभाव इति । स्ववचनबाधितो यथा माता मे वन्ध्या पुरुषसंयोगे प्यगर्भत्वात्प्रसिद्ध बन्ध्यावत् ।। २० ।। ५२४ दुःख का कारण कहे तो वह ग्रागम बाधित पक्ष है । आगम प्रमाण किस प्रकार प्रामाणिक होता है इसका कथन पहले कर दिया है । लोक बाधित पक्षाभास का उदाहरण शुचि नरशिरःकपालं प्राण्यंगत्वाच्छंखशुक्तिवत् ॥ १६ ॥ अर्थ -- मृत मनुष्य का कपाल पवित्र है, क्योंकि वह प्राणी का अंग अवयव है, जैसे शंख, सीप आदि प्राणी के अंग होकर पवित्र माने गये हैं, इसतरह अनुमान प्रयुक्त करना लोक से बाधित है लोक में तो प्राणी का अवयव होते हुए भी किसी अंग को - श्रवयव को पवित्र और किसी को अपवित्र बताया है, क्योंकि ऐसा ही वस्तु का स्वभाव है, जैसे कि गाय से उत्पन्न होने की अपेक्षा दूध और मांस समान होते हुए भी दूध शुद्ध है और मांस शुद्ध नहीं है, अथवा रत्न की अपेक्षा समानता होते हुए भी कोई रत्न विष बाधा को दूर करना इत्यादि कार्य में उपयोगी होने से महामूल्य होता है और कोई रत्न ऐसा इतना उपयोगी नहीं होता, इसीप्रकार का उनमें भिन्न भिन्न स्वभाव है, इसीतरह प्राणी का अंग होते हुए भी मृत मनुष्य की खोपड़ी अपवित्र हैछूने मात्र से सचेल स्नान करना होता है और शंख, सीप आदि के छूने से स्नान नहीं करना पड़ता ग्रतः दोनों को समान बतलाना लोक बाधित है । स्ववचन बाधित पक्षाभास का उदाहरण माता मे वन्ध्या पुरुष संयोगेप्यगर्भत्वात् प्रसिद्ध वन्ध्यावत् ॥ २० ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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