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धर्माधर्मद्रव्यविचारः
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स्यादृष्टस्यापीष्टत्वात् । साधारणं तु कारणं तासां धर्माधर्मावेवेति सिद्ध: कार्यविशेषात्तयोः सद्भाव इति ।
अपने स्वयं के अनुभवरूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा होती है, तथा अनुमान एवं प्रागम प्रमाण से भी होती है। जीव द्रव्य के संसारी मुक्त इत्यादि भेद प्रभेद, इनकी शुद्ध अशुद्ध अवस्था इत्यादि का वर्णन जैन ग्रन्थों में पाया जाता है वहीं से [जीव कांड, सर्वार्थसिद्धि प्रादि से ] जानना चाहिये । पुद्गल का लक्षण-स्पर्श, रस, गंध और वर्ण जिसमें पाये जाते हैं वह पुद्गल द्रव्य है, चाहे दृश्यमान पुद्गल चाहे अदृश्यमान पुद्गल हो दोनों में ही स्पर्शादि चारों गुण निश्चित रहते हैं, ऐसा नहीं है कि किसी में एक किसी में दो इत्यादिरूप से गुण रहते हों जैसा कि वैशेषिक मानते हैं। पुद्गल की जाति भेद की अपेक्षा दो भेद हैं अणु और स्कन्ध, स्कन्ध के स्थूल आदि छह भेद हैं, इनकी संख्या जीव से भी अनन्तानंत प्रमाण है, यह द्रव्य तो चाक्षुष प्रत्यक्ष प्रमाण से ही सिद्ध है । धर्म, अधर्म, काल और आकाश इनकी सिद्धि अनुमान तथा आगम प्रमाण से होती है । धर्म-अधर्म द्रव्यों का लक्षण उनके गति और स्थितिरूप कार्य विशेष द्वारा किया जाता है, अर्थात् गति परिणत जीव पुद्गलों को जो उदासीनरूप से निमित्त होता है वह धर्म द्रव्य है, यही इस द्रव्य का विशेष गुण है यही इसका लक्षण है, जैसा जीव का ज्ञान लक्षण है और विशेष गुण भी वही है। अधर्म द्रव्य स्थितिपरिणत जीव पुद्गलों का उदासीन सहायक है, इस द्रव्य का यह विशेष गुण एवं लक्षण है। काल वर्त्तना लक्षण वाला है, इसके निमित्त से प्रत्येक द्रव्य में प्रतिक्षण परिवर्तन होता है । इसी उपादान कारण द्वारा सूर्यादि के भ्रमण का निमित्त पाकर दिन, रात, वर्ष, अयन, युग इत्यादि व्यवहार काल बनता है । आकाश का लक्षण अवगाहना है, जीवादि सभी द्रव्यों को एव स्वयं को जो स्थान दे वह अाकाश है वह एक अखंडित सर्वगत है किंतु निरंश नहीं अंश सहित है-अनंत प्रदेशो है । इन सभी द्रव्यों का विशेष विवेचन तत्वार्थ सूत्र, सर्वार्थ सिद्धि, राजवात्तिक, गोम्मटसार, पंचास्ति काय इत्यादि जैन ग्रन्थों में पाया जाता है, विशेष जानने के इच्छुक मुमुक्षुओं को वहीं से जानना चाहिये, यहां तो प्रसंग पाकर दिग्दर्शन मात्र कराया है ।
।। धर्माधर्मद्रव्य विचार समाप्त ।।
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