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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
पुंगलास्तद्गतिस्थितयस्तदात्माऽदृष्टनिमित्ताश्चेत्; तर्ह्य साधारणं निमित्तमदृष्ट तासां प्रतिनियतात्मादृष्टस्य प्रतिनियतद्रव्यगतिस्थितिहेतुत्वप्रसिद्धेः । न च तदनिष्टं तासां क्षमादेरिवासाधारणकारण
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वैशेषिक - जो पुद्गल जिस आत्मा के उपभोग्य हुआ करते हैं, वे उसी आत्मा के अदृष्टद्वारा गति स्थितिरूप कार्य को करते हैं, अर्थात् उस आत्मा का प्रदृष्ट ही उस सम्बन्धी पुद्गल के गति स्थिति का निमित्त होता है, ऐसा माना जाय ?
जैन - ऐसा कहो तो प्रदृष्ट को गति और स्थितियों का असाधारण निमित्त मानना होगा न कि सर्व साधारण निमित्त, क्योंकि प्रदृष्ट तो प्रत्येक ग्रात्मा का पृथक् पृथक् अपने ही आत्मा में प्रति नियमित होता है, उसके द्वारा अपनी ही श्रात्मा के उपभोग्य पुद्गल के गति एवं स्थिति का निमित्तपना हो सकता है अन्य आत्मा के पुद्गल के गति स्थिति का नहीं । दूसरी बात यह है यदि कोई ग्रहष्ट को गति प्रादि का असाधारण निमित्त माने तो हम जैन को कोई अनिष्टकारक बात नहीं है, हमारा सिद्धांत तो अबाधित ही रहता है कि इन गति स्थितियों का सर्व साधारण निमित्त तो धर्म-अधर्म द्रव्य ही है, अन्य नहीं । जिस तरह इन गति आदि का प्रसाधारण निमित्त पृथिवी जल इत्यादि पदार्थ हैं उस तरह यदि अदृष्ट को इन गति आदि का असाधारण निमित्तपना माना जाय तो हमें इष्ट ही है किन्तु साधारण निमित्त तो गति स्थितियों का धर्म-अधर्म द्रव्य ही है, इसप्रकार गति स्थितिरूप कार्य विशेष से धर्म अधर्म द्रव्यों का सद्भाव सिद्ध होता है ।
विशेषार्थ- - जब वैशेषिकादि परवादी द्वारा मान्य द्रव्य, गुण इत्यादि पदार्थों का खण्डन किया तो सहज ही प्रश्न होते हैं कि जैन के यहां पदार्थों का लक्षण क्या होगा, कितनी संख्या होगी, वे किस प्रमाण द्वारा आधारित हैं- सिद्ध होते हैं ? इत्यादि, सो यहां संक्षेप से बताया जाता है, मूल ग्रन्थ में धर्म-अधर्म द्रव्य की सिद्धि की है, आत्मा आदि की सिद्धि तो परवादी के आत्मा श्रादि द्रव्यों का खण्डन करते हुए ही कर दी । जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म आकाश और काल इसप्रकार ये छह द्रव्य या पदार्थ हैं । जीव का लक्षण उपयोग-ज्ञान दर्शनमयी है, अर्थात् जिसमें ज्ञानदर्शन पाया जाय वह जीव द्रव्य है, इसकी संख्या अनन्त है, जैन जीव की सत्ता पृथक् पृथक् मानते हैं एक परमात्मा के ही अंशरूप सब जीव हैं ऐसा नहीं मानते हैं । जीव द्रव्य की सिद्धि
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