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________________ - प्रमेयकमलमार्तण्डे विधिप्रतिषेधावपि न केवलयोश्चैत्रकुण्डलयोः, किन्त्ववस्थाविशेषस्यैवेत्युक्तदोषानवकाश : । ततो ये अनेकवस्तुसन्निपाते सत्युपजायन्ते प्रत्यया न ते परपरिकल्पितसंयोगविषयाः यथा प्रविरलावस्थितानेकतन्तुविषयाः प्रत्ययाः, तथा चैते संयुक्तप्रत्यया इति । __ यच्चान्यदुक्तम्-'विशेषविरुद्धानुमानं सकलानुमानोच्छेदकत्वान्न वक्तव्यमिति ; तत्कि मनुमानाभासोच्छेदकत्वान्न वाच्यम्, सम्यगनुमानोच्छेदकत्वाद्वा ? तत्राद्य: पक्षोऽयुक्तः; न हि कालात्ययापदिष्टहेतूत्थानुमानोच्छेदकस्य प्रत्यक्षादेरनुमानवादिनोपन्यासो न कर्तव्योऽतिप्रसक्तः। द्वितीयपक्षोप्ययुक्तः; [अर्थात् देवदत्त हमेशा कुण्डल को पहने ही नहीं रहता, बिना कुण्डल के भी रहता है] वैसे हो "कुण्डलवाला है' इसप्रकार का ज्ञान भी हमेशा नहीं होकर संयुक्त अवस्था विशेष के होने पर ही होता है इसलिये उक्त ज्ञान संयुक्त अवस्था के अभाव में किस प्रकार होवेगा ? चैत्र और कुण्डल के विधि-निषेध की बात कही थी, अर्थात्-चैत्रः कुण्डली, चैत्रः अकुण्डली, चैत्र कुण्डल वाला है, अथवा चैत्र कुण्डलवाला नहीं है इत्यादि विधि निषेधरूप वाक्य में केवल चैत्र या केवल कुण्डल का विधि निषेध नहीं हुआ करता अपितु अवस्था विशेष का ही विधि निषेध हुआ करता है अतः आपके कहे दोष नहीं होते हैं । इसलिये अनुमान द्वारा निश्चित होता है कि-जो प्रतिभास अनेक वस्तुओं के संयुक्त अवस्था विशेष होने पर उत्पन्न होते हैं वे परवादी-वैशेषिक द्वारा कल्पित संयोग को विषय करने वाले नहीं होते, जिसप्रकार विकल अवस्था में अवस्थित अनेक तंतुओं को विषय करने वाले [जानने वाले प्रतिभास संयोग विषयक नहीं होते, ये विवक्षित संयुक्त प्रतिभास भी अनेक वस्तुओं के सन्निपात में होते हैं, अतः परकल्पित संयोग विषयक नहीं हैं। वैशेषिक के समवायविषयक अनुमान का निरसन करने के लिये जैन ने कहा था कि-विवाद में स्थित "इह इति ज्ञान" समवायपूर्वक नहीं होता, क्योंकि यह अबाधित इह प्रत्ययवाला है, इत्यादि इस अनुमान से समवाय का खण्डन हो चुकता है अतः "अयुत सिद्धानां इत्यादि अनुमान वाक्य विशेष विरुद्ध नामा अनुमानाभास बन जाता है" इस जैन के कथन पर वैशेषिक ने कहा था कि इसतरह विशेषविरुद्ध अनुमान को बाधा देंगे तो जगत्प्रसिद्ध सकल अनुमान नष्ट होंगे ? अतः ऐसा अनुमान नहीं कहना चाहिये । अब हम जैन आपसे पूछते हैं कि ऐसा अनुमान अनुमानाभास को बाधित करता है इसलिये नहीं कहना, कि-सत्य अनुमान को नष्ट करता है इसलिये नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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