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________________ समवायपदार्थविचारः न्तस्य च साध्यविकलता। यदि च संयोगमात्रसापेक्षा एव ते तज्जनकाः; तहि प्रथमोपनिपाते एव क्षित्यादिभ्योङ कुरादिकार्योदयप्रसङ्गः पश्चादिवाविकलकारणत्वात् । तदा तदनुत्पत्तौ वा पश्चादप्यनुत्पत्तिप्रसङ्गो विशेषाभावात् । यदप्युक्तम्-द्रव्ययोविशेषणभावेनेत्यादि; तदप्ययुक्तम् ; यतो न द्रव्याभ्यामर्थान्तरभूतः संयोगः प्रतिपत्तुः प्रत्यक्षे प्रतिभाति यत्नस्तद्दर्शनाद्विशिष्टे द्रव्ये आहरेत् । किं तहि ? प्राग्भाविसान्तरावस्थापरित्यागेन निरन्तरावस्थारूपतयोत्पन्ने वस्तुनी एव संयुक्तशब्दवाच्ये, अवस्थाविशेषे प्रभावितत्वात् संयोगशब्दस्य । तेन यत्र तथाविधे वस्तुनी संयोगशब्दविषयभावापन्ने पश्यति ते एवाहरति, नान्ये । यदप्युक्तम्-कुण्डलीत्यादि ; तदप्युक्तिमात्रम् ; यतो यथैव हि चैत्रकुण्डलयोविशिष्ावस्थाप्राप्तिः संयोगः सर्वदा न भवति, तद्वत् 'कुण्डली' इति मतिरप्यवस्थाविशेषनिबन्धना कथं तदभावे भवेत् ? - को अपेक्षा रखते हैं किन्तु वह कुभकार संयोगस्वरूप नहीं है। यदि गेहूं आदि बीज संयोगमात्र की अपेक्षा लेकर ही अंकरादिकार्य को उत्पन्न करने वाले माने जांय तो संयोग के प्रथम क्षण में ही पृथिवी आदि से अंकुरादिकार्य होने का प्रसंग आता है, क्योंकि जैसे पीछे संयोगरूप अविकल कारण मौजूद है वैसे प्रथम क्षण में भी मौजूद है । यदि प्रथम क्षण में वह कार्य उत्पन्न नहीं होता तो पीछे भी उत्पन्न नहीं होने का प्रसंग होगा, क्योंकि संयोगरूप कारण समानरूप है। वैशेषिक ने कहा कि दो द्रव्यों के विशेषण भाव से संयोग तो साक्षात् प्रतीत होता है, इत्यादि वह भी अयुक्त है, क्योंकि दो द्रव्यों से पृथग्भूत संयोग किसी प्रतिपत्ता पुरुष के प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रतिभासित नहीं होता, जिससे कि वह पुरुष उस संयोग को देखकर संयोगयुक्त द्रव्यों को उठा लेवे। प्रश्न-तो फिर क्या है ? उत्तर-पहले की अंतरालरूप अवस्था को छोड़ निरंतराल-मिली हुई अवस्थारूप से उत्पन्न हुई दो वस्तु ही संयुक्त शब्द का वाच्य है क्योंकि अवस्था विशेष में संयोग शब्द की प्रवृत्ति होती है। अतः संयोग शब्द द्वारा जो कहे जाते हैं ऐसे निरंतरालरूप अवस्था वाले दो पदार्थों को देखता है और उन्हीं को ले पाता है अन्य को नहीं । "कुण्डली देवदत्तः" इत्यादि जो ज्ञान होता है उसका कारण संयोग है ऐसा वैशेषिक का मतव्य है किन्तु वह असत् है, देवदत्त और कुण्डल या चैत्र और कुण्डल इन दो पदार्थों का विशिष्ट अवस्था की प्राप्ति होना रूप संयोग जैसे सर्वदा नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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