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________________ ४५४ प्रमेयकमलमार्तण्डे अथेहबुद्धौ समवायः प्रतिभासते; न; इहबुद्धे रधिकरणाध्यवसायरूपत्वात् । न चान्यस्मिन्नाकारे प्रतीयमानेऽन्याकारोर्थः कल्पयितुयुक्तोतिप्रसङ्गात् । अथ समवायबुद्ध्यासौ प्रतीयते; तन्न; समवायबुद्धरसम्भवात् । नहि 'एते तन्तवः, अयं पटः, अयं च समवायः' इत्यन्योन्यविविक्त त्रितयं बहिर्ग्राह्याकारतया कस्याञ्चित्प्रतीतौ प्रतीयते तथानुभवाभावात् । सर्वसमवाय्यनुगतैकस्वभावो ह्यसौ तत्र प्रतिभासेत, तद्वयावृत्तस्वभावो वा ? न तावत्तद्वयावृत्तस्वभावः; सर्वतो व्यावृत्तस्वभावस्यान्यासम्बन्धित्वेन गगनाम्भोजवत्समवायत्वानुपपत्तेः । नापि के प्रभाव का प्रसंग आयेगा । अर्थात् प्रति विषय में ज्ञान का भेद है और पृथक् पृथक एक एक विषय का पृथक् पृथक् ही ज्ञान है ऐसा माने तो मेचक ज्ञान [चित्र का ज्ञान] का अभाव होगा, क्योंकि मेचक ज्ञान का विषय नील, पीत, हरित आदि अनेक वस्तु रूप होता है। इसप्रकार समवाय का स्वरूप संबंधमात्र है और वह संबंधबुद्धि में प्रतिभासित होता है ऐसा प्रथम पक्ष खण्डित हुप्रा । "इह इति" इसप्रकार के प्रत्यय-अर्थात् ज्ञान में समवाय प्रतिभासित होता है ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि "इह-यहां पर" ऐसा ज्ञान तो अधिकरण का अध्यवसाय-निश्चय कर रहा है, इस ज्ञान में अधिकरण प्रतीत हो रहा है न कि संबंधत्व प्रतीत हो रहा, अन्य आकार प्रतीत होने पर उसमें अन्य आकार की कल्पना करना प्रयुक्त है, अन्यथा अतिप्रसंग उपस्थित होगा-पट के प्रतिभास में गृह घटादिका प्रतिभास होना भी स्वीकार करना होगा। “समवाय" इसप्रकार की बुद्धि द्वारा संबंधत्वरूप समवाय प्रतिभासित होता है ऐसा तृतीय पक्ष भी असंभव है, क्योंकि समवाय बुद्धि होना असम्भव है। ये तन्तु [धागे] हैं "यह वस्त्र है" और "यह समवाय है" इसप्रकार परस्पर से भिन्न तीन वस्तु बाह्य ग्राह्याकारपने से किसी ज्ञान में प्रतीत होती हुई अनुभव में नहीं पाती। तीन वस्तुओं के अनुभवन का अभाव है। तथा यह विचारणीय है कि समवाय समवायबुद्धि में प्रतिभासित होता है वह किस स्वभाव से प्रतिभासित होता है-सर्वसमवायी द्रव्यों में अनुगत एक स्वभाव से या व्यावृत्त स्वभाव से ? सर्व द्रव्यों से व्यावृत्त स्वभाव से समवायबुद्धि में समवाय प्रतीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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