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________________ समवायपदार्थविचारः ४५३ श्रितो वा, सम्बन्धबुद्ध्युत्पादको वा, सम्बन्धबुद्धिविषयो वा ? न तावत्सम्बन्धत्वजातियुक्तः; समवायस्यासम्बन्धवप्रसङ्गात् । द्रव्यादित्रयान्यतमरूपत्वाभावेन समवायान्तरासत्त्वेन चात्र सम्बन्धत्वजातेरप्रवर्त्तनात् । अथ संयोगवदनेकोपादानजनितः; हि घटादेरपि सम्बन्धत्वप्रसङ्गः । नाप्यनेकाश्रितः; घटत्वादेः सम्बन्धत्वानुषङ्गात् । नापि सम्बन्धबुद्ध्युत्पादकः लोचनादेरपि तत्त्वप्रसक्त: । नापि सम्बन्धबुद्धि विषयः; सम्बन्धसम्बन्धिनोरेकज्ञान विषयत्वे सम्बन्धिनोपि तद्रूपतानुषङ्गात् । न च प्रतिविषयं ज्ञानभेदः, मेचकज्ञानाभावप्रसङ्गात् । है ऐसा कहो तो पुनः प्रश्न होता है कि किसको सम्बन्ध कहते हैं सम्बन्धत्व शब्द के पांच अर्थ हो सकते हैं-संबंधत्व की जाति से युक्त होना, अनेक उपादानों से उत्पन्न होना, अनेकों के आश्रित रहना, संबंधबुद्धि को उत्पन्न करना [संबंध है इस प्रकार की बुद्धि का उत्पादक] और संबंध बुद्धि का विषय होना, इतने संबंधत्व शब्द के अर्थ हैं, इनमें प्रथम विकल्प संबंधत्व जातियुक्त होने को संबंध कहते हैं ऐसा मानना ठीक नहीं, इस तरह संबंध का लक्षण करेंगे तो समवाय असंबंधरूप बन जायगा, कसे सो ही बताते हैंसमवाय को पाप लोग न द्रव्य मानते हैं और न गुण या कर्मरूप मानते हैं अत: उसमें संबंधत्व जाति की वृत्ति नहीं हो सकती तथा मान भी लेवे कि समवाय में संबंधत्व जाति रहती है किंतु उसका संबंध जोड़ने के लिये अन्य समवाय नहीं होने से उक्त जाति उसमें नहीं रह सकती। दूसरा विकल्प-संयोग के समान अनेक उपादानों से उत्पन्न होना संबंध है, ऐसा कहो तो घटादि पदार्थ भी संबंधत्व स्वरूप बन जायेंगे, क्योंकि घटादिक भो अनेक उपादानों से उत्पन्न हुए हैं। अनेकों के आश्रित होने को संबंध कहते हैं, ऐसा तीसरा विकल्प भी गलत है, इसमें घटत्वादि को संबंधरूप मानने का प्रसंग आता है। संबंध की बुद्धि के उत्पादक को संबंधत्व कहते हैं ऐसा चौथा विकल्प कहे तो नेत्रादि को सम्बन्धत्वरूप मानना होगा क्योंकि नेत्र, प्रदीपादिक वस्तुओं में संबंध की बुद्धि को उत्पन्न करते हैं। संबधबुद्धि के विषय को सम्बन्धत्व कहते हैं ऐसा अंतिम विकल्प भी ठीक नहीं, संबंध और संबंधी को एक ज्ञान का विषय मानने पर संबंधी पदार्थ को भी संबंधपना प्राप्त होगा। अर्थात् सम्बन्ध और सम्बन्धी पदार्थ इन दोनों को ही संबंधरूपता आती है, [जिसमें संबंधत्व रहता है या समवाय रहता है उस संबंधवान पदार्थ को भी सम्बन्ध या समवाय मानना होगा जो कि परवादी को इष्टर नहीं है ] कोई कहे कि संबंध को विषय करने वाला ज्ञान पृथक है और संबंध युक्त संबंधी को विषय करने वाला ज्ञान पृथक् है, सो यह भी युक्त नहीं इसमें मेचक ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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