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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे अपि तु पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्तिस्थितिलक्षणपरिणामेनाऽर्थक्रियोपपत्तश्च । 'सामान्यविशेषात्मा तदर्थः' इत्यभिसम्बन्धः। अद्वैत वादी वस्तु को मात्र सामान्यात्मक स्वीकार करते हैं। बौद्ध पदार्थों को सामान्य धर्म से रहित सर्वथा विशेषात्मक ही मानते हैं। किन्तु यह सर्व ही मान्यता प्रमाण बाधित है, वस्तु पदार्थ या द्रव्य में सामान्य और विशेष दोनों धर्म, स्वभाव या गुण हमेशा ही रहते हैं, ऐसा नहीं है कि कुछ पदार्थ केवल सामान्यात्मक हो और कुछ विशेषात्मक ही हो ! इसमें कारण है वस्तु की तथा प्रतीति, हम देखते हैं अनुभव करते हैं कि वस्तु में सामान्य धर्म और विशेष धर्म युगपत सतत प्रतिभासित होते हैं, उदाहरण के लिये एक गौ है उसमें गौत्व-सास्नादिका होना रूप सामान्य धर्म सभी बैल तथा गायों में पाया जाने वाला अनुवृत्त प्रत्यय कराने वाला वैशिष्य है तथा शबलचितकबरापन विशेष धर्म है जो मात्र उसी में निहित है यह व्यावृत्ति का कारण है, इसी प्रकार घटों में घटत्व तो सामान्य धर्म है और छोटा, बड़ा, मिट्टी का, पीतल का, कृष्ण वर्ण, पीत वर्ण, रक्त वर्ण इत्यादि विशेष धर्म हैं, पट में पटत्व अर्थात् धागों का ताना बाना रूप बुनाई इत्यादि तो सामान्य धर्म है और रेशमी, सूती, सफेद, काला, मोटा, पतला इत्यादि विशेष धर्म हैं, जगत का एक भी पदार्थ सामान्य और विशेष से रहित उपलब्ध नहीं होता है। इस विषय में प्रागे स्वयं ग्रन्थकार विविधरीत्या आलोचना करेंगे ही। पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करने के लिये प्रमुख दो हेतु हैं "पदार्थाः सामान्य विशषात्मकाः, अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय गोचरत्वात्, पूर्वोत्तराकारपरिहारावाप्ति स्थिति लक्षण परिणामेण, अर्थक्रियोपपत्तेः" पदार्थ-अचेतन चेतन अखिल द्रव्य समूह सामान्य और विशेष उभय धर्म युक्त हैं, क्योंकि उनमें अनुवृत्त का (समानता का) और व्यावृत्तपने का बोध हो रहा है, तथा पूर्व आकार का परिहार रूप व्यय, उत्तराकार की प्राप्ति रूप उत्पाद और उभयाकारों में अन्वय रूप स्थितिध्रौव्य पाया जाता है इस प्रकार की परिणाम रूप अर्थ क्रिया की उनमें उपलब्धि है। इस प्रकार इन हेतुओं से पदार्थ उभय धर्मात्मक सिद्ध होते हैं। जगत की कोई भी वस्तु मात्र सामान्य रूप या मात्र विशेष रूप देखने में नहीं आती है अतः प्रत्यक्ष, अनुमान, तर्क एवं प्रागम प्रमाणों द्वारा सिद्ध सामान्य विशेषात्मक ही पदार्थों को स्वीकार करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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