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________________ my सामान्यस्वरूपविचारः अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात्, यो हि यदाकारोल्लेखिप्रत्ययगोचरः स तदात्मको दृष्टः यथा नोलाकारोल्लेखिप्रत्ययगोचरो नीलस्वभावोर्थः, सामान्य विशेषाकारोल्लेख्यनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरश्चाखिलो बाह्याध्यात्मिकप्रमेयोर्थः, तस्मात्सामान्य विशेषात्मेति । न केवलमतो हेतोः स तदात्मा, सूत्रार्थ-पदार्थों में अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय होते हैं एवं पूर्व प्रकार का त्याग और उत्तर आकार की प्राप्ति एवं अन्वयी द्रव्य रूप से ध्र वत्व देखा जाता है इस तरह की परिणाम स्वरूप अर्थ क्रिया देखी जाती है, इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से होने वाली परिणाम स्वरूप अर्थ क्रिया का सद्भाव, पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करता है। पदार्थों में सादृश्य को बतलाने वाला अनुवृत्त प्रत्यय है जैसे यह गौ है, यह भी गौ है इत्यादि अनेक पदार्थों में समानता का ज्ञान होने से, तथा पृथकपना बतलाने वाला व्यावृत्त प्रत्यय अर्थात् यह गौ श्याम है धवल नहीं है इत्यादि व्यावृत्त प्रतिभास होने से पदार्थों में सामान्य और विशेषात्मकपना सिद्ध होता है, जो जिस प्राकार से प्रतिभासित होता है वह उसी रूप देखा जाता है, जैसे नीलाकार से प्रतिभासित होने के कारण नील स्वभाव वाला पदार्थ है ऐसा माना जाता है । सामान्य आकार का उल्लेखी अनुवृत्त प्रत्यय और विशेष आकार का उल्लेखी व्यावृत्त प्रत्यय सम्पूर्ण बाह्य-अचेतन पदार्थ एवं अभ्यन्तर-चेतन पदार्थों में प्रतीत होता ही है अतः वे चेतन अचेतन पदार्थ सामान्य विशेषात्मक सिद्ध होते हैं। पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करने के लिये अकेला अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय ही नहीं है, अपितु सूत्रोक्त पूर्व आकार का त्याग रूप व्यय, उत्तर आकार की प्राप्तिरूप उत्पाद और दोनों अवस्थाओं में अन्वय रूप से रहने वाला ध्रौव्य पदार्थों में पाया जाता है, इस तरह की परिणाम स्वरूप अर्थ क्रिया का सद्भाव भी उनमें पाया जाता है, इन हेतुओं से पदार्थों को सामान्य विशेषात्मकता सिद्ध होती है। भावार्थ- पदार्थ, वस्तु, द्रव्य, तत्व, अर्थ ये सब एकार्थ वाचक हैं, जगत के दृश्यमान तथा अदृश्यमान पदार्थ या द्रव्य किस रूप हैं जिनको कि प्रमाण ज्ञान अपना विषय बनाता है, इस विषय में नैयायिकादि जैनेतर मतों में भिन्न भिन्न सिद्धांत पाये जाते हैं। नैयायिक वैशेषिक आदि कुछ परवादी सामान्य और विशेष दोनों धर्मों को मानकर भी इनका सम्बन्ध भिन्न भिन्न पदार्थों में होना बतलाते हैं । ब्रह्माद्वैत आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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