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________________ कर्मपदार्थवादः ४२३ प्रदीपः; उत्पत्तिप्रदेश (शे)ध्वंसमुपगच्छति च क्षणिको भाव इति । न चार्थस्य क्षणिकत्वाद्देशाद्देशान्तरप्राप्तिर्धान्ता; क्षणिकवादस्य प्रतिषिद्धत्वात् । ततः परिणामिन्येवार्थे यथोक्त कर्मोपपद्यते । न चेदमर्थादर्थान्तरम्; तथाभूतस्यास्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलम्भेनासत्त्वात् । प्रयोगःयदुपलब्धिलक्षणप्राप्त सन्नोपलभ्यते तन्नास्ति यथा क्वचित्प्रदेशे घटः; नोपलभ्यते च विशिष्टार्थस्वरूपव्यतिरेकेण कर्मेति । न चोप न ब्धिलक्षण प्राप्तत्वमस्याऽसिद्धम् ; “संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपिसम बायाच्चाक्षुषाणि' [ वैशे० सू० ४।१।११ ] इत्यभिधानात् । तन्न कर्मपदार्थोपि परेषां घटते । उत्पत्ति प्रदेश में दीपक नष्ट होता है अतः अन्य स्थान पर नहीं जाता। क्षणिक पदार्थ भी उत्पत्ति स्थान पर नष्ट होता है अतः देशांतर में गमन नहीं कर सकता है। बौद्ध-पदार्थ तो क्षणिक ही है और वह देशांतर में जाता भी नहीं किन्तु भ्रान्तिवश ऐसा मालूम पड़ता है कि देशांतर में गमन कर गया ? जैन-आपके क्षणिक पदार्थ का पहले ही [क्षण भंगवाद प्रकरण में] खण्डन हो चुका है। इसप्रकार क्षणिक और अक्षणिक दोनों प्रकार के पदार्थों में क्रिया उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता अतः परिणमनशील-कथंचित् क्षणिक अक्षणिक पदार्थ में ही यह पूर्वोक्त उत्क्षेपण आदि क्रिया या कर्म उत्पन्न होता है ऐसा नियम सिद्ध होता है। किन्तु यह उत्क्षेपणादि कर्म पदार्थ से पृथक नहीं है, क्योंकि पदार्थ से पृथक भूत कर्म की उपलब्ध होने योग्य होते हुए भी उपलब्धि नहीं होती अतः उसका अभाव ही है, अनुमान प्रमाण सिद्ध बात है कि-जो वस्तु उपलब्ध होने योग्य होकर भी उपलब्ध नहीं होती वह वस्तु नहीं है, जैसे किसी प्रदेश में घट उपलब्ध नहीं होता तो उसका वहां अभाव ही है । कर्मरूप से परिणत वस्तु को छोड़कर अन्य कर्म प्रतीत नहीं होता, अतः वह नहीं है । कर्म की उपलब्ध होने की योग्यता प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि आप स्वयं मानते हैं कि संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, और कर्म ये सब रूपी द्रव्य में समवाय को प्राप्त होने से चाक्षुष हैं-चक्षु द्वारा उपलब्ध होने योग्य हैं । अतः कर्म [क्रिया] उपलब्ध होने योग्य नहीं है ऐसा कहना अशक्य है। इसतरह वैशेषिक का कर्मनामा पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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