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________________ गुणपदार्थवादः ४११ यत्प्रत्यक्षं न भवति स्प ( स्य ) न्दन क्रियां च न करोतीत्युच्यते ; तर्हि गुरुत्वरसावप्येवंधर्मको रूपित्वादेव किन्न तेजसोभ्युपगम्येते तुल्याक्षेपसमाधानत्वात् ? तथा चाऽस्योर्द्धवगतिस्वभावता न स्यात्, 'रसः पृथिव्युदकवृत्तिः' इत्यस्य च विरोध इति । ___ 'स्नेहोऽम्भस्येव' इत्यप्ययुक्तम्, घृतादेरपि लोके वैद्यकादिशास्त्रे च स्निग्धत्वेन प्रसिद्धत्वात् । घृतादावन्यनिमित्तत्वेनौपचारिक: स्निग्धप्रत्ययः; इत्यप्यसाम्प्रतम् ; विपर्ययस्यापि कल्पयितु शक्यत्वात् । तथा हि-तोयसम्पर्केप्योदनादौ च स्निग्धप्रत्ययो नास्ति घृतादिसम्पर्के तु स्निग्धप्रत्ययः जैन-यदि ऐसा है तो तेजस में रूपीपना होने से [अग्नि में] गुरुत्व और रसत्व गुण का सद्भाव क्यों नहीं मानते हैं, उसमें भी इस तरह का स्वभाव वाला गुरुत्व और रसत्व है कि जो पतन क्रिया तथा स्वाद क्रिया को नहीं करता है। इस प्रकार सुवर्णादि पार्थिव द्रव्य में द्रवत्व मानना और अग्नि में गुरुत्व एवं रसत्व मानना इन दोनों पक्षों में प्राक्षेप, समाधान समान है। इसतरह तेजो द्रव्य में जब गुरुत्व और रसत्व गुण की सिद्धि होती है तब उसमें [तेजो द्रव्य में] ऊर्ध्वगति स्वभाव सिद्ध नहीं हो सकेगा, क्योंकि उसमें पतनक्रिया लक्षण वाला गुरुत्व गुण है । तथा रस गुण पृथिवी और जल में ही रहता है ऐसा आपका सिद्धांत भी बाधित होगा, क्योंकि तेजो द्रव्य में भी रसत्वगुण को स्वीकार किया है । स्नेह गण जल में ही होता है ऐसा कहना भी प्रयुक्त है, घृत, तेल आदि पदार्थ भी स्नेह गुण युक्त देखे जाते हैं, वैद्यक ग्रन्थ में भी घृतादिका स्नेहपना प्रसिद्ध है। वैशेषिक-घृत आदि में जो स्नेहपना दिखायी देता है वह अन्य निमित्त से आया है अतः प्रौपचारिक है ? जैन-यह कथन असत है, इससे विपरीत भी कल्पना कर सकते हैं। आगे इसीको स्पष्ट करते हैं-प्रोदन आदि में जल के संपर्क होने पर भी स्निग्ध प्रतिभास नहीं होता, किन्तु उसमें घृतादि का संपर्क होने पर सभी को स्निग्धता का प्रतिभास होता है। ___वैशेषिक-गेहूं का आटा प्रादि में जल के निमित्त से बंध होता [ पाटे को प्रोसन कर एकट्ठा करना ] हुआ देखा जाता है, अतः जल में ही विशेष स्नेह गुण माना जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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