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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे गुरुत्वं कस्मान्न गृह्यते इति चेत् ? ग्रहणायोग्यत्वात् । तावतैवातीन्द्रियत्वे गन्धरसादीनामप्यतीन्द्रियत्वं स्यात् । क्वचिद्रेतदाश्रयस्याम्रफलादेः प्रत्यक्षत्वेपि तेषां ग्रहणाभावादिति । पृथिव्यनलयोरप्यस्ति द्रवत्वम् ; इत्यनुपपन्नम् ; सुवर्णादीनाम् "अग्नेरपत्यं प्रथमं सुवर्णम्" [ ] इत्यागमतः प्रसिद्धतंजसत्वानां जतुप्रभृतिपार्थिवद्रष्याणां चाप्यस्यैव द्रवत्वस्य संयुक्तसमवायवशात्प्रतीतिसम्भवात् । अथ 'सर्व पार्थिवं तेजसं च द्रव्यं द्रवत्वसंयुक्त रूपित्वात्तोयवत्' इत्यनुमानात्तस्य द्रवत्वसिद्धिः; तन्न; प्रत्यक्षेण स्प ( स्य ) न्दनकर्मानुपलम्भेन च बाधितविषयत्वात् । अथेत्थन्धर्मकं तत्र द्रवत्वं जातं समाधान-उसका गुरुत्व ग्रहण के अयोग्य है । यदि ग्रहण के अयोग्य होने मात्र से गुरुत्व को प्रतीन्द्रिय स्वीकार किया जाय तो गन्ध, रसादि को भी अतीन्द्रिय स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि कहीं दूर में रूप रसादि के आश्रयभूत आम्र फलादि के प्रत्यक्ष होने पर भी उनके रस, गन्धादिका ग्रहण नहीं होता अतः जो ग्रहण योग्य नहीं है वह अतीन्द्रिय है ऐसा कहना अयुक्त है । पृथ्वी और अग्नि में भी द्रवत्व गुण है ऐसा वैशेषिक ने कहा था वह असिद्ध है। आगे इसी को स्पष्ट करते हैं-'अग्ने रपत्यं प्रथमंसुवर्णं' अग्नि का प्रथम अपत्य सुवर्ण है इत्यादि परवादी के पागम से प्रसिद्ध तैजसरूप सुर्वणादि द्रव्य और लाख आदि पृथ्वीरूप द्रव्यों में जल का ही द्रवत्व संयुक्त समवाय के वश से प्रतीत होता है, अर्थात् पृथ्वी आदि में स्वयं द्रवत्व गुण नहीं है अपितु जल का ही द्रवत्व है संयुक्त समवाय के कारण पृथ्वी आदि में उसकी प्रतीति होती है।। वैशेषिक-सभी पार्थिव और तैजस द्रव्य द्रवत्व से संयुक्त हैं क्योंकि रूपी हैं, जैसे जलरूपी होने से द्रवत्व से संयुक्त हैं। इस अनुमान द्वारा पृथ्वी आदि में द्रवत्व की सिद्धि होती है। जैन-यह कथन असत् है, पृथ्वी आदि में स्यन्दन क्रिया होती हुई प्रत्यक्ष से उपलब्ध नहीं होती है अतः आपका अनुमान प्रत्यक्ष बाधित है । वैशेषिक-इन पार्थिव तथा तैजस पदार्थों में इस तरह का स्वभाव वाला द्रवत्व है कि जो प्रत्यक्ष नहीं होता है और स्यंदन [बहना] क्रिया को नहीं करता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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