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________________ गुणपदार्थवादः ३६१ ननु यदि संख्या गुणो न स्यात्तह्यं नित्यत्वमसमवायिकारणत्वं चास्या न स्यात् । अस्ति च तदुभयम् । तथा चोक्तम् - " एकादिव्यवहारहेतुः संख्या: । सा पुनरेकद्रव्या चानेकद्रव्या च । तत्रैकद्रव्यायाः सलिलादिपरमाणुरूपादीनामिव नित्यानित्यत्वनिष्पत्तयः । सलिलादयश्रादिपरमाणवश्चेति विग्रहः । अनेकद्रव्या तु द्वित्वादिका पराद्धन्ता । तस्याः खल्वेकत्वेभ्योऽनेक विषय बुद्धि सहितेभ्यो निष्पत्तिः, अपेक्षा बुद्धिनाशाच्च विनाशः क्वचिदाश्रय विनाशादुभय विनाशाच्चेति चार्थः । श्रसमवायिकारणत्वं च द्वित्वबहुत्वसंख्यायाः द्व्यणुकादिपरिमाणं प्रति" [ प्रश० भा० पृ० १११ - ११३ ] इति ; एतदपि मनोरथमात्रम् ; भेदवदस्याः कारणत्वाभावात् । यथैव हि कार्य भिन्नतायां कारण भिन्नताया वैशेषिक - संख्या को यदि गुण नहीं माना जाय तो वह अनित्य और श्रसमवायीकारणरूप नहीं हो सकती, किंतु संख्या में अनित्यपना और असमवायी कारणपना दोनों ही दिखायी देते हैं, कहा भी है "एक है, दो है" इत्यादि व्यवहार का हेतु संख्या ही हुआ करती है, वह संख्या एक द्रव्यरूप तथा अनेक द्रव्यरूप भी होती है । उनमें जो एक द्रव्यरूप संख्या है उससे नित्य और अनित्यत्व की निष्पत्ति होती है, जैसे जल आदि के रूपादि गुण और परमाणुत्रों के रूपादि गुणों की नित्य अनित्यरूप निष्पत्ति होती है अर्थात् जल आदि के रूपादिगुण प्रनित्य और परमाणु रूपादिगुण नित्य होते हैं, जैसे रूपादिगुण एक रूप होकर भी उसके नित्यपना तथा प्रनित्यपना हुआ वैसे ही संख्यागुण एक द्रव्यरूप होकर भी उसके नित्यपना तथा अनित्यपना होता है । “सलिलादिपरमाणुरूपादीनां" इस पद का विग्रह सलिलादयश्च आदि परमाणवश्च ऐसा है । अनेक द्रव्यरूप जो संख्या है वह दो से लेकर परार्द्ध संख्या तक है, इस प्रक द्रव्यरूप द्वित्वादि संख्या की निष्पत्ति अनेक विषय सम्बन्धी बुद्धि से युक्त ऐसे एकत्वों से हु करती है, अर्थात् द्वित्वादि संख्या प्रापेक्षिक हुआ करती है, जहां दो संख्या का प्रतिभास हो वहां द्वित्व श्रौर जहां अन्य तीन प्रादि संख्या का प्रतिभास हो वहां वही तीन यदि संख्या निष्पन्न हो जाती है और अपेक्षाबुद्धि के विनाश होते ही वह संख्या भी नष्ट हो जाती है, कभी कहीं पर श्राश्रयभूत संख्येय के विनाश होने से वह संख्या नष्ट हो जाती है, अर्थात् संख्या और संख्येय इन दोनों का भी नाश होता है, इसतरह यह अनेक द्रव्यरूप द्वित्वादि संख्या प्रनित्य है । संख्यागुण असमवायीकारणरूप भी होता है, कैसे सो बताते हैं- " द्वणुक आदि के परिमाण के प्रति द्वित्व बहुत्व आदि संख्या समवायी कारण हुआ करती है," ऐसा हमारे यहां कहा गया है, इसका अर्थ यह है कि दो अणु का स्कन्ध द्वयणुक है, यह व्यणुक है इत्यादि पदार्थों के माप का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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