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________________ ३६० प्रमेय कमलमार्तण्डे ज्ञानम्, अस्खलवृत्तित्वात् । यदि चाश्रयगता संख्यैकार्थसमवायाद्गुणेषूपचर्येत; तर्हि 'एक स्मिन्द्रव्ये रूपादयो बहवो गुणाः' इति प्रत्ययोत्पत्तिर्न स्यात्, तदाश्चयद्रव्ये बहुत्वसंख्याया अभावात् । 'षट् पदार्थाः' इत्यादिव्यपदेशे च किं निमित्तमित्यभिधातव्यम् ? न ह्यत्रैवार्थसमवायिनी संख्या सम्भवति ; तया सह षट्पदार्थानां क्वचित्समवायाभावात् । अस्तु वा संख्या, तथाप्यस्याः कथं गुणत्व सिद्धि। सत्वादिवत् षट्स्वपि पदार्थेषु प्रवृत्त : ? - - जैन- यह कथन असत् है, गुणों में होने वाला संख्या का बोध बाधा रहित है, जैसे द्रव्य की संख्या करने में संख्या को प्रतीति अस्खलित रूप से होती है वैसे गुण की संख्या करने में संख्या की प्रतीति होती है, कोई अन्तर नहीं है । वैशेषिक -- गुणों की संख्या की बात ऐसी है कि-गुण स्व प्राश्रयभूत द्रव्य में एकार्थ समवाय से रहते हैं, संख्या भी द्रव्य में एकार्थ समवाय से रहती है उसके कारण गुणों में उपचार करके संख्या का ज्ञान प्रवृत्त होता है ? जैन--तो फिर एक द्रव्य में रूपादि बहुत से गुण हैं ऐसी प्रतीति उत्पन्न नहीं हो सकेगी क्योंकि उसके आश्रयभूत द्रव्य में बहुत्व संख्या का अभाव है ऐसा आप स्वीकार करते हैं। इसीप्रकार छह पदार्थ हैं इत्यादि नाम व्यवहार में क्या निमित्त है यह भी वैशेषिक को बतलाना होगा, अर्थात् ये छह पदार्थ हैं ऐसा नाम तथा ज्ञान का व्यवहार करते हैं इसमें छः संख्या है वह कौनसी संख्या है ? केवल एक द्रव्य नामा पदार्थ में समवायिनो संख्या तो हो नहीं सकती, क्योंकि उसके साथ छहों पदार्थों के समवाय का अभाव है अभिप्राय यह है कि संख्या को गुण माना, गुण केवल द्रव्य में रहता है, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय इनमें नहीं रहता फिर इन गुण, कर्म आदि की संख्या या ये द्रव्यादि छह पदार्थ हैं ऐसा कहना, इनमें छह संख्या का प्रतिभास होना कैसे सम्भव है ? अर्थात् नहीं है । वैशेषिक के विशेष आग्रह से मान लेवे कि संख्या नामा पदार्थ है किन्तु उसे गुण कैसे कह सकते हैं ? क्योंकि इसको सत्वादि के समान छहों पदार्थों में प्रवृत्ति होती है । अर्थात् संख्या को गुणरूप नहीं मानो तब तो सत्वादि की तरह छहों पदार्थों में उसकी प्रवृत्ति होवे गी अन्यथा नहीं हो सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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