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________________ गुणपदार्थवाद: ३८७ वद्रव्यसंयोगविरोधी च । भावनाख्यः पुनरात्मगुणो ज्ञानजो ज्ञानहेतुश्च, दृष्टानुभूतश्रुतेष्वप्यर्थेषु स्मृतिप्रत्यभिज्ञाकार्योन्नीयमान सद्भावः । मूत्तिमद्रव्य गुण: स्थितस्थापकः, घनावयवसन्निवेशविशिष्टं स्वमाश्रयं कालान्तरस्थायिनमन्यथाव्यवस्थितमपि प्रयत्नतः पूर्ववद्यथाव स्थितं स्थापयतीति कृत्वा, दृश्यते च तालपत्रादेः प्रभूततरकालसंवेष्टितस्य प्रसार्यमुक्तस्य पुनस्तथैवावस्थानं संस्कारवशात् । एवं धनु :शाखाशृङ्गदन्तादिषु भग्नापवर्तितेषु वस्त्रादौ चास्य कार्यं परिस्फुटमुपलभ्यत एव । धर्मादयस्तु सुप्रसिद्धा एवेति । तदेतत्स्वगृहमान्यं परेषाम् ; रूपादिगुणानां यथोपवणितस्वरूपेणावस्थानासम्भवात् । न खलु रूपं पृथिव्युदकज्वलनवृत्त्येव, वायोरपि तद्वत्तासम्भवात् । तथाहि-रूपादिमान्वायुः पौद्गलिकत्वात् द्रव्य के संयोग का विरोधी है, अर्थात् वृक्ष प्रादि द्रव्य के साथ बाणादि का संयोग होने पर बाण का वेग नामा संस्कार स्वयं नष्ट हो जाता है । भावना नामका गुण तो अात्मा का है यह ज्ञान से उत्पन्न होता है और ज्ञानका कारण भी है। यह भावना दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान को कराने में कारण है, इन स्मृति आदि कार्यों को देखकर भावना गुण का सद्भाव जाना जाता है, स्थित स्थापक नामा संस्कार मूर्तमान द्रव्य का गुण है, यह घने अवयवों से रचे हुए विशिष्ट ऐसे अपने आश्रय को जो कि कालांतर स्थायी है, उसको अन्यथा रूप से व्यवस्थित होने पर पुन: प्रयत्न करके पहले के समान स्थापित कर देता है, इसका उदाहरण देते हैंबहत काल से वेष्ठित रखे हुये ताड़ पत्र अादि पदार्थ हैं उनको फैलाकर छोड़ दो तो पुन: वैसे ही बन जाते हैं, क्योंकि संस्कार वैसा ही पड़ा है, इसीप्रकार खींचकर छोड़ा हुआ धनुष पुन: वैसे ही मुड़ जाता है, वृक्ष की डाली, सींग, दांत आदि खींचकर छोड़ देने पर पूर्ववत् रहते हैं, वस्त्रादि पदार्थ भी बहुत दिन तक जैसे रखे हों वैसे अवस्थित रहते हैं ऐसा स्पष्ट दिखायी देता है, यह स्थित स्थापकनामा संस्कार का कार्य है । धर्म, अधर्म और शब्द ये गुण तो जगत प्रसिद्ध हैं, इनका अधिक विवरण आवश्यक नहीं है, अर्थात धर्म अधर्म ये गुण आत्मा में ही रहते हैं, ये अनित्य हैं, तथा शब्द आकाश का गुण है यह भी अनित्य है। इसप्रकार चौबीस गुणों का हमारे यहां वर्णन पाया जाता है। जैन--यह वर्णन परवादियों के अपने घर का मात्र है, प्रमाणभूत नहीं है, क्योंकि जैसा इनका स्वरूप बताया वैसा सिद्ध नहीं होता है, रूपगुण पृथिवी, जल, अग्नि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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