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आत्मद्रव्यवाद विचार का सारांश
वैशेषिक आत्मा को सर्वगत, एक एवं नित्य मानते हैं। उनका कहना है कि श्रात्मा व्यापक नहीं होवे तो उसके उपभोग्य पदार्थ शरीर आरंभक परमाणु आदि का देशांतर से आकर्षण नहीं हो सकता । अतः आत्मा व्यापक है एवं आकाश सदृश परम महापरिमाण गुणका अधिकरण है। वैशेषिक ने उक्त आत्मा के स्वरूप को सिद्ध करने के लिये अनेक अनुमान उपस्थित किये हैं, जैन ने उनका क्रमशः सयुक्तिक निरसन किया है और आत्मा को व्यापक कथंचित् नित्यनित्यात्मक सिद्ध किया है । यह शरीरधारी प्रत्येक आत्मा स्व स्व शरीर में ही प्रतिभासित होता है, आकाशवत् महापरिमाण वाला प्रतिभासित नहीं होता । श्राकाश एक द्रव्यरूप है किन्तु आत्मा अनेक द्रव्य है । आत्मा व्यापक होता तो हलन चलनरूप क्रियाशील नहीं होता । वैशेषिक का मंतव्य है कि आत्मा अणु प्रमाण नहीं है अतः सर्वव्यापक है किन्तु यह नियम नहीं है, कि जो अणु प्रमाण नहीं वह अवश्य सर्वव्यापक होवे |
नित्यत्व और सर्वगतत्व के साथ प्रविनाभाव स्थापन करना भी संभव है, क्योंकि परमाणु द्रव्य नित्य होकर भी सर्वगत नहीं है । देवदत्त आदि पुरुषों के निकट द्वीपांतरों से मणि मुक्ता श्रादि पदार्थ श्रा जाते हैं अतः देवदत्तादिका प्रात्मा व्यापक है ऐसा वैशेषिक कथन भी अयुक्त है द्वीपांतर के मणि मुक्ता आदि को देवदत्त के प्रति आकृष्ट करनेवाला कौनसा गुण है यह एक प्रश्न है यदि देवदत्त के ज्ञानादिगुण उक्त पदार्थों को आकृष्ट करते हैं तो सर्वथा प्रतीतिविरुद्ध है । अदृष्ट पुण्य पापरूप गुण आकृष्ट करते हैं ऐसा मानना भी अशक्य है, क्योंकि अदृष्ट [ धर्म - धर्म - पुण्य पाप ] अचेतन है तथा श्रात्मा को सर्वगत माने तो संसार का प्रभाव होगा, सर्वव्यापक होने से गति से दूसरी गति में गमनरूप क्रिया अशक्य होगी । आत्मा को संसार न होकर मन को होता है ऐसा कथन भी असत् है मन पृथक् द्रव्य नहीं है ।
वैशेषिक के यहां कहा है ईश्वर द्वारा प्रेरित होकर स्वर्ग या
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कि यह प्रज्ञजीव अपने सुख दुःख में असमर्थ है नरक में गमन करता है, इससे सिद्ध होता है कि
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