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________________ ३८० प्रमेयकमलमार्तण्ड इत्यादिहेतूपन्यासोऽविचारितरमणीयः, तत्स्वरूपासिद्धौ हेतोराश्रयासिद्धत्वात् । स्वरूपासिद्धत्वाच्च; द्रव्यत्वाभिसम्बन्धो हि समवायलक्षणो भवताभ्युपगम्यते, न चासौ प्रमाणतः प्रसिद्ध इति । विशेषणासिद्धत्वं च; द्रव्यत्वसामान्यस्य यथाभ्युपगतस्वभावस्थासम्भवात् । तन्न परपरिकल्पितो द्रव्यपदार्थो घटते। वायु, अग्नि, दिशा, काल, आकाश, प्रात्मा और मन इन नौ द्रव्यों का वैशेषिक ने जैसा वर्णन किया है वैसा प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं होता है, जब ये द्रव्य प्रमाण बाधित है इनका स्वरूप तथा संख्या प्रतीत नहीं होती है तो पृथ्वी आदि द्रव्य इतर पदार्थों से भेद को प्राप्त होते हैं, क्योंकि इनमें द्रव्यत्व का समवाय है, इत्यादि हेतु उपस्थित करना अयुक्त है, इन द्रव्यों का स्वरूप ही सिद्ध नहीं है तो इनके सिद्धि के लिये प्रदत्त हेतु आश्रय रहित होने से प्राश्रयासिद्ध कहलायेगा, तथा स्वरूपासिद्ध भी होगा, अर्थात् द्रव्यत्व हेतु द्वारा पृथ्वी आदि को इतर गुणादि पदार्थों से पृथक् करते हैं किंतु इन द्रव्यों में द्रव्यत्व का सम्बन्ध करनेवाला समवाय नामा पदार्थ आपने' माना है वह किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता, अतः द्रव्यत्व हेतु स्वरूपासिद्ध होता है। इसका विशेषण भी प्रसिद्ध है, क्योंकि जिसप्रकार का निरंश एक नित्य द्रव्यत्व सामान्य का स्वरूप कहा है वह असंभव है। इसतरह 'द्रव्यत्वात्' हेतु आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध और विशेषणासिद्ध दोष युक्त है। इसप्रकार आप वैशेषिक का द्रव्यनामा पदार्थ सिद्ध नहीं होता है। । आत्मद्रव्यवाद विचार समाप्त ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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