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प्रमेयकमल मार्तण्डे
इत्यप्यसारम् ; तथाविधाभावस्य विशेषणत्वासिद्धिप्रतिपादनात् । प्रभावविचारे चानयोर्हेतूदाहरणयोः प्रतिहतत्वान्न साध्यसाधकत्वम् ।
पर्युदासपक्षेप्यसर्वगतद्रव्यपरिमाणसम्बन्धभावान्मूर्त्तत्वादन्यदमूर्त्तत्वं सर्वगतद्रव्यपरिमाणेन परममहत्त्वेन सम्बन्धा (न्ध) भावः, स च न कुतश्चित्प्रमाणात्प्रसिद्ध इति हेतोरसिद्धिः।
यच्चान्यदुक्तम्-प्रात्मा व्यापको मनोम्यत्वे सत्यस्पर्शवद्व्यत्वादाकाशवदिति; तदप्येतेनैव प्रत्युक्तम् ; स्पर्शवद्रव्यप्रतिषेधेऽत्रापि प्रागुक्ताशेषदोषानुषङ्गात् । सन्दिग्धानकान्तिकश्चायं हेतुः;
शंका-अनुमान प्रमाण का प्रभाव नहीं है, हम आत्मा के अमर्त्तत्व को ग्रहण करने वाले अनुमान को उपस्थित करते हैं-आत्मा अमूर्त है इसप्रकार की जो बुद्धि है वह भिन्न जाति के अभाव के निमित्त से होती है [साध्य] क्योंकि प्रभाव विशेषण रूप भावको विषय करने वाली यह बुद्धि है [ हेतु ] जैसे "अघटं भूतलं" यह भूतल अघटरूप है इत्यादि बुद्धि अभाव विशेषणरूप भावको विषय करतो है।
समाधान-यह कथन असार है, यह अभावरूप विशेषण तुच्छाभावरूप होने से विशेषण बन ही नहीं सकता ऐसा पहले ही सिद्ध कर दिया है। जब हम जैन ने अभाव प्रमाण का विचार किया था तब उसी प्रकरण में [दूसरे भाग में] आपके इस अनुमान के हेतु तथा उदाहरण का खण्डन कर दिया था, अतः इसके द्वारा प्रात्माका अमूर्त विशेषण आदि सिद्ध होना अशक्य है। तुच्छाभावरूप अभाव में साध्य-साधकपना बनता नहीं।
न मर्त्तत्वं अमर्तत्वं इसप्रकार के नञसमास का पर्युदास प्रतिषेध अर्थ करते हैं तो भी ठीक नहीं है, मूतत्व का अर्थ असर्वगत द्रव्य परिमाण का सम्बन्ध होना है उसका निषेध यानी मूर्त से अन्य अमूर्त है, यह अमूर्त त्व सर्वगत द्रव्य परिमाणरूप परममहत्व के साथ सम्बद्ध है ऐसा आपके यहां माना है किंतु ऐसा किसी भी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है अर्थात् अमूर्तत्व सर्वगत द्रव्य परिमाण से ही सम्बद्ध है ऐसा अविनाभाव नहीं है । अतः अमूर्त होने से आत्मा सर्वगत है ऐसा हेतु वाक्य असिद्ध कोटि में जाता है।
अमतत्व हेतु के समान ही "अस्पर्शवत् द्रव्यत्वात्" हेतु प्रसिद्ध है अर्थात् आत्मा व्यापक है, क्योंकि मन से पृथक् होकर अस्पर्शवान द्रव्य है, जैसे प्राकाश है, इस
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