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________________ प्रात्मद्रव्यवाद। ३६६ स्तदभावो विशेषणम्' इति विशिष्टप्रत्ययजननात् विशेषणं समवायवत्प्रसक्तम्, तथा च तत्राप्यपरेण तत्सम्बन्धन भवितव्यमित्यनवस्था। अथासम्बद्धः; कथं विशेषण विशेष्याभिमतयोः स भवेत् यतस्तत्र विशिष्ट प्रत्ययप्रादुर्भावः सम्बन्धो वा? विशिष्टप्रत्ययहेतुत्वाच्चेत्; ईश्वरादौ प्रसङ्गः। तथापि स 'तयोः' इति कल्पने भावस्याभावः समवायिनोऽस (नो: स) मवायस्तथैव स्यादित्यलं तत्र विशेषणीभावसम्बन्धकल्पनया । तन्न प्रत्यक्षं तद्ग्रहणोपायः । नाप्यनुमानम् ; परस्य प्रत्यक्षाभावे तदभावात्, तन्मूलत्वात्तस्य । नन्विदमस्ति-प्रात्माऽमूर्त इति बुद्धिभिन्नाभावनिमित्ता, अभावविशेषणभावविषयबुद्धित्वात्, अघटं भूतलमित्यादिबुद्धिवत्; विशेषणीभाव है वह उन दोनों से सम्बद्ध है कि असम्बद्ध है, सम्बद्ध है तो जैसे आत्मा में विशिष्ट ज्ञान कराने से [प्रात्मा अमूर्त है ऐसा ज्ञान कराने से] वह मूर्त्तत्वका प्रभाव प्रात्मा का विशेषण बना वैसे विशेषणीभाव भी होगा अर्थात् आत्मा विशेष्य है और मूर्त्तत्वाभाव विशेषण है इसप्रकार के विशिष्ट ज्ञान का हेतु विशेषणीभाव भी बन सकता है अतः वह समवाय के समान विशेषणरूप होगा और जब विशेषणीभाव विशेषण बनेगा तो उसके लिये दूसरा कोई सम्बन्ध चाहिए, इसतरह अनवस्था आती है । आत्मा और मूर्त्तत्वाभाव इनमें जो विशेषणीभाव है वह असम्बद्ध है ऐसा दूसरा पक्ष माने तो विशेषण-विशेष्यरूप माने गये इन प्रात्मादि में वह विशेषणीभाव किस प्रकार होवेगा जिससे कि उनमें विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हो सके या सम्बन्ध हो सके ? यदि कहा जाय कि इन प्रात्मादि में विशिष्ट ज्ञानको कराने में हेतु होने से विशेषणीभाव मानते हैं तो ऐसा विशेषणीभाव ईश्वर, काल आदि पदार्थों में भी मानना होगा, क्योंकि ये भी विशिष्टज्ञान को कराने में हेतु होते हैं। इसप्रकार आत्मा और मूर्त्तत्वाभाव में सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है फिर भी उसे माने तो भावका अभाव, दो समवायी द्रव्यों का समवाय ये भी बिना किसी सम्बन्ध के सम्बद्ध हो जायेंगे। फिर इनमें विशेषणी भाव सम्बन्ध की कल्पना करना व्यर्थ होगा । इसप्रकार तुच्छाभावरूप अमूर्तत्व ग्रहण करने का उपाय प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं हो सकता है यह निश्चत हो गया । अनुमान प्रमाण उस अभावरूप अमूर्त्तत्व को ग्रहण करता है ऐसा कहना भी असत् है, क्योंकि आपके यहां प्रत्यक्ष के अभाव में अनुमान प्रवृत्त नहीं हो सकता, अनुमान का मूल कारण प्रत्यक्ष है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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