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________________ प्रात्मद्रव्यवाद: ३६७ चास्य ग्रहणोपायाभावादज्ञातासिद्धो हेतुः । न हि प्रत्यक्षस्तद्ग्रहणोपायः; तस्येन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात्, तुच्छाभावेन सह मनसोऽन्यस्य चेन्द्रियस्य सन्निकर्षाभावात् । ननु मन प्रात्मना सम्बद्धमात्मविशेषणं च तदभाव:; ततः सम्बद्धविशेषणोभावस्तेन मनस इति । युक्तमिदं यद्यसावात्मनो विशेषणं भवेत् । न चास्यैतदुपपन्नम् । विशेष्ये हि विशिष्टप्रत्ययहेतुविशेषणं यथा दण्डः पुरुषे । न च तुच्छाभावस्तत्प्रत्ययहेतुर्घटते; सकलशक्तिविरहलक्षणत्वादस्य, अन्यथा भाव एव स्यादर्थक्रियाकारित्वलक्षणत्वात् परमार्थसतो लक्षणान्तराभावात् । सत्तासम्बन्धस्य तल्लक्षणस्य कृतोत्तरत्वात् । ____................ .....----- को माने तो इसको ग्रहण करने का [जानने का] कोई नहीं दिखता, अतः "अमूतत्वात्" हेतु अज्ञात नामा प्रसिद्ध हेत्वाभास है इस तुच्छाभावरूप अमूर्त्तत्वको प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होता है ऐसा आपने माना है, और तुच्छाभाव के साथ मन या इन्द्रियों का सन्निकर्ष हो नहीं सकता। वैशेषिक-सन्निकर्ष होने की बात ऐसी है कि मन अात्मा के साथ सम्बद्ध है और मूतत्व का अभावरूप जो अमूतत्व है वह आत्मा का विशेषण होने से प्रात्मा में सम्बद्ध है, इसतरह सम्बद्ध विशेषणोभाव युक्त आत्मा द्वारा मन सम्बन्धित होने से अमूतत्व को प्रत्यक्ष ग्रहण कर सकता है । जैन-यह कथन तब युक्त हो सकता है जब मूतत्व का अभावरूप अमूर्त्तत्व विशेषण प्रात्मा के सिद्ध होवे, किन्तु यह विशेषण सिद्ध नहीं होता । विशेष्य में विशिष्ट ज्ञान कराना विशेषण कहलाता है, जैसे पुरुष रूप विशेष्य में दण्डा रूप विशेषण "यह दण्डावाला है" ऐसा ज्ञान कराता है, किन्तु ऐसा विशिष्ट ज्ञान कराना तुच्छ भाव के वश का नहीं है, क्योंकि तुच्छाभाव संपूर्ण शक्तियों से रहित होता है, यदि शक्ति रहित नहीं है या विशिष्ट ज्ञान कराता है तो इसे भाव स्वभाववाला मानना होगा क्योंकि परमार्थभूत सत्ता स्वभाववाले पदार्थ का लक्षण यही है कि अर्थक्रिया में समर्थ होना भावरूप पदार्थ का अन्य लक्षण नहीं है, सत्ताका सम्बन्ध जिसमें हो वह भावरूप पदार्थ है ऐसा लक्षण गलत है, इस सत्ता सम्बन्ध के विषय में पहले बहुत कह पाये हैं [घटादि पदार्थ का अस्तित्व या सत् सत्ता समवाय से होता है पहले ये घटादि पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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