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________________ ३६२ प्रमेय कमलमार्तण्डे प्रात्मनस्तु स्यात् यद्येकदेहपरित्यागेन देहान्तरमसौ व्रजेत्, तथा च घटादिवत्तस्य सर्वत्रोपलभ्यमानगुणत्वमित्युभयोः सर्वगतत्वं म वा कस्यचिद विशेषात् ।। यच्चाकाशवदित्युक्तम् । तत्राकाशस्य को गुणः सर्वत्रोपलभ्यते-शब्दः, महत्त्वं वा ? न तावच्छब्दः; प्रस्याकाशगुणत्वनिषेधात् । नापि महत्त्वम् ; अस्यातीन्द्रियत्वेनोपलम्भासम्भवात् । एतेन 'बुद्धयधिकरणं द्रव्यं विभु नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाधिष्ठानत्वादाकाशवत्' इत्यपि प्रत्युक्तम् ; साधनविकलत्वाद्दृष्टान्तस्य । हेतोश्चानैकान्तिकत्वम्, परमाणूनां नित्यत्वे सत्य यदि वैशेषिक आत्माके संसार होना मानते हैं तब तो ठीक है किन्तु फिर वह एक शरीरका त्याग कर दूसरे शरीर में गमन करेगा अतः सर्वत्र उपलभ्यमान गुणत्व उसमें कैसे सम्भव होगा ? अर्थात् नहीं होगा। इसलिये घट और आत्मा में अविशेषता होने से किसी के भी सर्वत्र उपलभ्यमान गुणत्व और सर्वगतत्व सिद्ध नहीं होता अर्थात् जैसे घट के गुण सर्वत्र उपलभ्यमान नहीं है और न घट सर्वगत है, वैसे आत्मा के गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते और न वह सर्वगत ही है । आकाश के समान आत्माके गुण सर्वत्र उपलब्ध होते हैं ऐसा वैशेषिक ने कहा था सो आकाश का कौनसा गुण सर्वत्र उपलब्ध होता है शब्दनामा गुण या महत्वनामा गुण ? शब्द तो हो नहीं सकता, शब्द प्राकाश का गुण नहीं है ऐसा हम प्रतिपादन कर चुके हैं। महत्वनामा गुण भी सर्वत्र उपलब्ध होना अशक्य है, क्योंकि वह गुण अतीन्द्रिय है। जैसे सर्वत्र उपलभ्यमानगुणत्वनामा हेतु प्रसिद्ध है वैसे ही अग्रिम कहा जाने वाला हेतु तथा पूरा अनुमान ही प्रसिद्ध है, अब उसीको बताते हैं-जो द्रव्य बुद्धिका अधिकरण होता है वह व्यापक [सर्वगत] होता है, क्योंकि नित्य होकर हमारे द्वारा उपलब्ध होने योग्य गुणका अधिष्ठान है, जैसे आकाश हमारे द्वारा उपलभ्यमान गुणका अधिष्ठान होने से व्यापक है । इस अनुमान में प्रकाश का दृष्टांत दिया है वह साधन विकल है [हेतु से रहित है क्योंकि शब्द आकाश का गुण नहीं है तथा महत्वनामा गुण अतीन्द्रिय होने से उपलब्ध नहीं होता है इसलिये आकाश के समान प्रात्माका गुण सर्वत्र उपलभ्यमान है ऐसा कहना साधन विकल ठहरता है] तथा हेतु अनै कान्तिक दोष युक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001278
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 3
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year
Total Pages762
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size16 MB
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